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शिव शंकर सिंह पारिजात/
बिहार सरकार के उद्योग विभाग के तत्वावधान में उपेंद्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान के द्वारा भागलपुर के सैंडिस कम्पाऊण्ड में 8 से 10 दिसम्बर की अवधि में आयोजित तीन-दिवसीय मंजूषा महोत्सव अंगभूमि के नाम से प्रसिद्ध भागलपुर की पारम्परिक लोक-कला मंजषा के सुनहरे भविष्य की उम्मीदें तो जगा गया, पर बिहार के एक अन्य सुपरिचित मधुबनी पेंटिंग अथवा ओडिशा व बंगाल के पटचित्र आदि अन्य लोक शैलियों से प्रतिस्पर्धा कर जिस मुकाम को इसे हासिल करना है, उसके लिये उसे कई मंजिलें तय करनी होगी।
इस तीन दिनी महोत्सव की खास बात रही मंजूषा के विकास के लिये कॉमन फैसिलिटी सेंटर की घोषणा जहां एक्सपर्ट इसके डिजाइन, प्रशिक्षण, प्रचार-प्रसार, मार्केटिंग व विकास हेतु काम करेंगे। इसकी पुरातनता और पारम्पारिकता को बरकरार रखते हुए इसे कॉमर्शियल व मुख्य फ्रेम में लाने के ‘इनिशिएटिव’ लिये जायेंगे। यदि तय समय-सीमा के अंदर इन बातों को अमलीजामा पहना दिया जाये, तो मंजूषा के दिन बहुरने से कोई रोक नहीं सकता।
इस बार के महोत्सव की खासियत ये रही कि लगातार तीन दिनों तक मंजूषा कला से जुड़े एक सौ से उपर युवक-युवतियों ने पेंटिंग का लाईव डेमोंस्ट्रेशन किया जिनका उत्साह देखते बनता था। पर खलनेवाली बात लगी इसके विषय वस्तु की एकरूपता, जो धीरे-धीरे इसे बोझिलता की ओर ले जा रहा है। मंजूषा चित्रकला अंग की पारम्परिक लोकगाथा बिहुला-विषहरी पर आधारित है तथा यहां के पूजन-अनुष्ठानों से सम्बद्ध है। जाहिर है पारम्पारिकता का निर्वाह तो होना ही चाहिए, पर संतुलित ढंग से नवोन्मेषी ट्रेंड और आधुनिकता के पुट भी सामयिकता के मद्देनजर जरूरी है। इसके लिये जरूरी है राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर के कला मर्मज्ञों के साथ इंटर-ऐक्शन व ट्रेनिंग जिसकी सोच दो-दो महत्सवों के बाद भी बनकर सामने नहीं आ सकी है।
बिहुला-विषहरी की लोकगाथा और उसपर आधारित मंजूषा के साथ पीढ़ी दर पीढ़ ग्रामीण क्षेत्र के लोक कलाकार जुड़े हुए हैं जिनके लिये यह जीविका का साधन भी है। मंजूषा और इससे जुड़ी सामग्रियों के निर्माण इनके जीवन में रचे-बसे हैं। पर मंजूषा के आयोजनों अथवा महोत्सवों के साथ इन्हें जोड़ने की सार्थक पहल शायद अभी तक नहीं हो पाई है। इनकी उपेक्षा कर मंजूषा का ठोस आधार कतई तैयार नहीं किया जा सकता।
आज जब मंजूषा एक नई ऊंचाई को छूने को तत्पर है, तो संजीदगी से से इसके अतीत से लेकर वर्तमान तक की गतिविधियों का डॉक्यूमेंटेशन भी होना चाहिए। इस बार के महोत्सव में मंजूषा पर पुस्तक लेखन की बात तो हुई, पर यहां के लेखकों को याद तक नहीं
किया गया। ज्योतिष चंद्र शर्मा, प्रो. राजीव कुमार सिन्हा, रामलखन गुरुजी, शेखर आदि ऐसे जाने-माने नाम हैं जिन्होंने मंजूषा की सुरभि को देश-विदेश तक फैलाया। ऐसे विद्वानों का संज्ञान लेना जरुरी है। जिस तेजी से मंजूषा कला की ओर युवा पीढ़ी की रूझान बढ़ रही है, उस तुलना में यहां कला प्रशिक्षकों व ट्रेनरों की कमी है। इस अनुरूप एमटी, आरपी व केआरपी तैयार करने होंगे।
भागलपुर की मंजूषा फर्श से उठकर अर्श पर पहुंचने को बेताब है। सरकार, प्रशासन, कलाप्रेमियों व आम लोगों को मंजूषा के लिये अपने दिल और प्रयास बड़े करने होंगे क्योंकि इसके सपनों को अब पंख जो लग गये हैं। अब इसमें सिर्फ एक्रिलिक ही नहीं, उम्मीदों के रंग भी भरने होंगे।
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