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शिव शंकर सिंह पारिजात/
आज धूमधाम के साथ बिहुला-विषहरी का विसर्जन का सिलसिला चल रहा है भागलपुर में. मेला जैसा नजारा है, लोग मौजमस्ती में डूबे हुए है पर शायद लोगो को पता हो की यह पूजा जो अंग प्रदेश का एक पहचान भी है, धार्मिक आस्था के साथ साथ महिला-सशक्तिकरण का भी एक अनुपम उदाहरण भी है.
बिहुला-विषहरी की पूजा अंगभूमि के नाम से विख्यात रहे भागलपुर प्रक्षेत्र का एक विशिष्ट लोकपर्व है जिसमें इस जनपद के समस्त नर-नारी शरीक होते हैं. देवी मनसा विषहरी सनातन धर्म के विभिन्न प्रमुख देवी-देवताओं में एक मानी जाती हैं जिनकी पूजा बिहार सहित समस्त पूर्वोत्तर भारत में प्रधानता के साथ होती है. ऐसे तो विषहरी की पूजा में धार्मिक आस्था का प्राधान्य है, किंतु गहराई से मीमांसा करने पर इसमें नारी सशक्तिकरण के संदेश भी निहित मिलते हैं जिसमें एक तरफ नारी महत्वाकांक्षा व शक्ति की प्रतीक देवी मनसा हैं तो दूसरी तरफ पुरूष हठ के प्रतीक चांदो सौदागर हैं जिनके बीच हुए संघर्ष व समन्वय की धुरी बनती है एक आम नारी के साहस और आत्मविश्वास की प्रतीक बिहुला. दूसरी ओर ऐतिहासिक-धार्मिक विवेचना के मूल में जाने पर यह विदित होता है कि यह गाथा एक नारी देवी (मनषा विषहरी) के एक शक्तिशाली पुरूष-देव (भगवान शंकर) के उपर वर्चस्व प्राप्त करने की कथा है जो शैवमत के साथ हुए शाक्तमत के संघर्ष और उसपर प्राप्त विजय को दर्शाता है जो परोक्षतः नारी सशक्तिकरण का अनूठा उदाहरण पेश करता है.
बिहुला-विषहरी की लोकगाथा के अनुसार भगवान शंकर की मानस-पुत्री मनसा जब अपने पिता के समक्ष अन्य देवी-देवताओं के समान पूजित होने की इच्छा व्यक्त करती है तो शिव उससे कहते हैं कि परम् शिवभक्त-चम्पानगर निवासी- चांदो सौदागर द्वारा उसकी पूजा स्वीकार किये जाने के बाद ही वह पृथ्वीलोक के निवासियों की पूजा प्राप्त कर सकती है. किंतु हठी शिवभक्त चांदो जब इसके लिये तैयार नहीं होता है तो देवी मनसा अपने क्रोध, शक्ति व अहं का प्रदर्शन करते हुए चांदो पर दुखों के पहाड़ ढा देती है और उसकी समस्त धन-सम्पदा विनष्ट करते हुए श्राप देती है कि उसके छोटे पुत्र बाला लखंदर की मृत्यु उसके सुहागरात को जायेगी.
अपनी समस्त सम्पत्ति के विनष्ट होने के बाद भी हठी चांदो सौदागर हार नहीं मानता है और मनसा के श्राप को निष्फल करने हेतु अपने पुत्र बाला लखंदर की शादी एक परम् तेजस्वी कन्या बिहुला से करवाता है तथा उनके सुहागरात के लिये देवशिल्पी विश्वकर्मा से लोहा-बांस का एक ऐसा सुरक्षित घर बनवाता है जिसमें सर्प तो क्या, वायु तक प्रवेश न कर सके। किंतु मायावी देवी अपने कार्य में सफल हो जाती है और बाला की मृत्यु सर्पदंश से हो जाती है.
ये तो हुई एक हठी परूष (चांदो) द्वारा एक सक्षम नारी (मनसा) को उसका उचित स्थान न देने पर सुख-शांति व घर-समाज के विघटन-विध्वंस का पक्ष. दूसरी ओर बिहुला के रूप में अपने धैर्य, आत्मविश्वास और साहस से एक नारी द्वारा परिवार-समाज के खोये हुए ऐश्वर्य, सुख-शांति की पुर्नप्राप्ति का दृष्टांत जो इस गाथा में परिलक्षित होती है.
सुहारात में अपने पति के सर्पदंश से मृत्यु होने के बावजूद वह अपना धैर्य, संयम व आत्मविश्वास नहीं खोती है और अपने पति का शव मंजूषा पर लेकर चम्पा-नदी के मार्ग से मार्ग की कई बाधाओं को पार करते हुए स्वर्ग लोक जाती है और इन्द्रदेव को अपनी निष्ठा से प्रभावित कर पति के प्राण वापस प्राप्त करती है.
तत्पश्चात् बाला को लेकर बिहुला जब चम्पानगर वापस आती है तो अपने मृत पुत्र को जीवित देख चांदो सौदागर अति प्रसन्न हो जाता है और बिहुला के समझाने पर देवी मनसा विषहरी की पूजा को तैयार हो जाता है. उसकी खोई हुई धन-सम्पदा देवी की अनुकम्पा से वापस हो जाती है. कहते हैं तभी से मृत्युलोक में मनसा की पूजा की परम्परा प्रारम्भ हो जाती है जो अबतक विद्यमान है.
बिहुला-विषहरी की गाथा यह संदेश देती है कि एक नारी जहां अनिष्ट करने की शक्ति रखती है, वहीं वह बिगड़ी बात बनाने की भी क्षमता रखती है. जरूरत है उसकी शक्ति व क्षमता को पहचानने की और उसे उचित स्थान-सम्मान देकर उसे सशक्त करने की. अपनी निष्ठा, आत्मविश्वास व धैर्य से बिहुला द्वारा अपने मृत पति के प्राण वापस लाने की घटना हमें उस पौराणिक मान्यता का संकेत देती है कि जिस प्रकार ‘शक्ति’ के बिना ‘शिव’ एक ‘शव’ के समान है, उसी तरह आधुनिक संदर्भ में एक नारी के सहयोग के बिना पुरूष ‘शक्तिहीन’ है.
विषहरी-पूजा के विविध विधि-विधानों में महिलाओं की बड़ी संख्या में भागीदारी से यह परिलक्षित होता है कि सदियों बीत जाने पर भी यह गाथा आज भी महिलाओं के आत्मविश्वास को सुदृढ़ कर रहा है.
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