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19 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लाली पहाड़ी में प्राप्त सिम्हानद अभलोकेश्वर की काले पत्थर की मूर्ति .


पुरे दक्षिण एशिया में इकलौती बौद्ध महिला बटालियन लखीसराय में ही था

@news5pm

April 16th, 2018

ब्यूरो रिपोर्ट /

मध्यकालीन दक्षिण एशिया के  इतिहास में बौद्ध धर्म को उभारने में भारतीय महिलाओ की क्या भूमिका थी  इसका निदर्शन लखीसराय में ही मिल सकती है !

जयनगर लाली पहाड़ी से निकले प्रमाण इस बात की साक्षी दे रहे हैं कि किस तरह मध्यकालीन बौद्ध संस्थानों के विकास में महिलाओं ने अपनी प्रत्यक्ष भूमिका निभाई.

उत्खनन कार्य से जुड़े विशेषज्ञ विशेष तौर पर बताते हैं कि यहाँ के महाविहार से सम्बद्ध जो संरचना मिली है वे बौद्ध भिक्षुणियों के आवासन गृह (नुमारी) हैं.  विशेषज्ञों का दावा है कि मध्यकालीन भारत के बौद्ध धर्म में महिलाओं की संलग्नता का यह विरल उदाहरण है जो देश में पहली बार मिला है.

भिक्षुणियों के आवासन के निमित्त चूना-पत्थर से निर्मित कई संशलिष्ट संरचना वाले कक्षों.

लाली पहाड़ी उत्खनन दल के नेतृत्वकर्ता तथा विश्वभारती के प्राचीन इतिहास, संस्कृति और पुरातत्व विभाग के अध्यक्ष प्रो. अनिल कुमार शिलालेखों के आधार पर बताते हैं कि यह विहार भिक्षुणियों के निमित्त था जिसका निर्माण बुजुर्ग भिक्षुणी विजय श्रीभद्र के सम्मान में कराया गया था तथा पाल वंश के राजा सूरजपाल की पत्नी मल्लिका देवी इसकी संरक्षिका थी.

प्रो. अनिल कुमार के अनुसार जोसेफ डेविड बेगलर, जो ब्रिटिश भारत के अधीनस्थ एक अमरीकी-भारतीय इंजीनियर, पुराविद् और फोटोग्राफर थे तथा भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को अपने प्रतिवेदन समर्पित करते थे, ने 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लाली पहाड़ी में प्राप्त सिम्हानद अभलोकेश्वर की काले पत्थर से निर्मित एक मूर्ति की पहचान की थी (जो कि सम्प्रति सेंट पीटर्सबर्ग हरमिटेज म्यूजियम में संग्रहित है) के निचले भाग के शिलालेख में अंकित यहाँ के इस भिक्षुणियों के विहार के वारे में दर्शया गया था. प्रो. कुमार ने बताया, “वस्तुतः औपनिवेशिक काल में लखीसराय से विदेश भेजी गई मूर्ति के शिलालेख के साथ हमने हाल में यहां की गई खुदाई से मिली सीलों में उत्कीर्ण शिलालेखों के साथ समानता पाई है”.

कुछ इस तरह के होता था भिक्षुणियों के कमरे इस महाविहार में .

उन्होंने दावा किया कि लाली पहाड़ी की पुरा संरचनाओं में उत्कीर्ण शिलालेखों के अलावे यहां के भौगोलिक संरचनात्मक साक्ष्य भी यह साबित करने के लिए महत्वपूर्ण है कि यह महाविहार भिक्षुणियों का एक वृहत् केन्द्र था जो कि मध्यकालीन भारत में अपने ढंग का पहला है. उन्होंने बताया, “हमने इस भिक्षुणी महाविहार में भिक्षुणियों के आवासन के निमित्त चूना-पत्थर से निर्मित कई संशलिष्ट संरचना वाले कक्षों की खोज की है जो एक दूसरे से सम्बद्ध थे. प्रत्येक कक्ष में दरवाजों के भी प्रमाण मिले हैं”.

प्रो. कुमार के अनुसार इस भिक्षुणी विहार से मात्र एक किमी उत्तर में बिछवे पहाड़ी पर एक दूसरे विहार के प्रमाण मिले हैं जो सिर्फ बौद्ध भिक्षुओं के निमित्त थे; क्योंकि वहाँ पाये गये कक्ष अलग-अलग हैं. उन्होंने बताया कि इन दो विहारों के बीच अति प्रसिद्ध छलिया पर्वत अवस्थित था जहाँ बौद्ध ग्रंथों के अनुसार गौतम बुद्ध ने तीन वर्षामास व्यतीत किये थे. छलिया पर्वत पर एक स्तूप का होने का अनुमान भी है.

प्रो. कुमार ने बताया कि लाली पहाड़ी स्थित भिक्षुणी विहार की हाल की खुदाई के दौरान इसकी उत्तर-पूर्व दिशा में एक मकर प्रानल का पता चला है जिससे होकर इस भिक्षुणी विहार परिसर के कचरे निःसृत होते थे. इस मकर प्रानल का निचला हिस्सा काले पत्थर से निर्मित है जो कि भग्न अवस्था में मिला है, किंतु यह उत्तम कलात्मक कृतियों से युक्त है. उन्होंने बताया कि वर्तमान खुदाई के दौरान देवी तारा की एक लघु प्रतिमा के अलावे भूमिस्पर्श बुद्ध की विभिन्न मुद्राएं, छत वगैरह मिले हैं.

 

उत्खनन कार्य में लगे विश्वभारती के एक छात्र ने बताया कि उत्खनन स्थल की दक्षिण-पश्चिम दिशा में टूटे हुए बर्तनों के अलावे उस स्थान से अग्नि के निशान के साथ चारकोल और चबूतरे तथा ईंट में जले हुए निशान मिला है जो इस बात का  इंगित करते हैं कि यहाँ कभी आग लगी होगी.

भिक्षुणी विहार परिसर के कचरे निःसृत होने के मकर प्रानल का निचला हिस्सा खुदाई में मिली जो काले पत्थर से निर्मित है.

इस क्षेत्र के इतिहासकार एवं विद्वान शिव शंकर सिंह पारिजात तथा तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय के प्रो. रमन सिन्हा व प्रो. बिहारी लाल चौधरी का मानना है कि लाली पहाड़ी में बौद्ध भिक्षुणी विहार की खोज से दक्षिण एशिया में मध्यकालीन बौद्ध कलाकृतियों के निर्माण एवं धार्मिक कृत्यों में महिलाओं की भूमिका को एक नई दिशा मिलेगी.


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