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वर्फ के वीच में बौद्द बिहार !
रमन सिन्हा/
1911 में शरत चन्द्र दास की एक अंग्रेजी किताब ‘INDIAN PANDITS IN THE LAND OF SNOW’ की प्रकाशन पूरी दुनिया में धूम मचा रखा था. यह किताब शायद दुनिया को एकवार फिर से याद दिलवाया कि आज से तकरीबन 1000 साल पहले किस तरह से भागलपुर की धरती से पैदा हुई एक धर्मिक विचारधरा कैसे तिब्बत होकर पूरी दुनिया में फैला.
जी हाँ, यह धार्मिक विचारधारा था बौद्ध धर्मं की एक नई शाखा वज्रयान जिसकी उत्पत्ति संभवत विक्रमशिला बौद्ध महाविहार में हुई थी, जो उस समय भागलपुर की जमीन से उठ कर तिब्बत होकर लगभग पूरी दुनिया में फैली. इसके साथ साथ लामावाद का भी जन्म स्थल विक्रमशिला को माना जाता है, आज दुनिया में एक बहुत बड़ी संख्या में बौद्ध धर्मावलंबी लामावाद की छतरी के नीचे संगठित है.

दीपंकर श्रीज्ञान अतिश .
विक्रमशिला (भागलपुर) की जमीन से इस अनोखी विचारधरा को दुनिया के सामने पोरोसने में अगर सब से ज्यादा किसी ने कोई भूमिका अदा की थी तो वह थे दीपंकर श्रीज्ञान अतिश (982 – 1054 ई.), जिनका जन्म भागलपुर में हुआ था. दीपंकर विक्रमशिला महाविहार में एक सम्मानित आचार्य थे और तिब्बत नरेश के आमंत्रण पर विक्रमशिला से तिब्बत जाकर बौद्ध धर्म को विकसित तथा परिष्कृत करने में मिशाल कायम किये थे.
हालांकि तिब्बत में एक नये बौद्ध युग आरंभ करने का श्रेय प्रथम महान सम्राट ” सोड़ सन गम पो ” ( जन्म 617 ई. ) को दिया जाता है. वे इस्लाम के संस्थापक पैगम्बर मुहम्मद साहब, कन्नौज सम्राट हर्षवर्धन और चीनी यात्री युआन चवांग के समकालीन थे.
वे पुराने बोन धर्मावलंबियों , जो अंधविश्वासी थे, से कम से कम तीन सदी तक संघर्ष करते रहे. बौद्धों को बहुत बार पराजय भी झेलना पड़ा. यह सब गयारहवीं सदी में भागलपुरवासी दीपंकर जिन्हें तिब्बती में Jo Vo Rje Dpal Ldan ATISA के नाम से पुकारा जाता है, के आविर्भाव तक चलता रहा. अतिश के प्रभाव से ही वहां बौद्ध धर्म राष्ट्रीय धर्म बना और वे लामावाद के जनक भी बने.
दुखद पक्ष यह है कि अतिश के विचारों, दर्शन पर बहुत शोध हुए, लेकिन उनके जन्म स्थान पर कोई कारगर शोध नहीं हुआ और न हो रहा है. हम भागलपुर वासियों को इस पर गहन शोध कर अपना पक्ष मजबूत बनाना होगा.

विक्रमशिला बौद्ध महाविहार.
इतिहास पर नजर डालने पर ज्ञात हो रहा है कि भागलपुर के पूर्वी भाग के एक ब्राह्मण कुल के शांतरक्षित (जन्म 650 ई. ) , जिसे उनके मित्र ईत्सिंग भंगल या भगल नाम से पुकारते थे. राहुल सांकृत्यायन के अनुसार भागलपुर के सहोर गांव के निवासी एवं अतिश के कुल के ही पूर्वज थे. लेखक के अनुसार भंगल या भगल के कारण ही भागलपुर नाम पडा. तिब्बती राजा ति सोड दे सेन के आमंत्रण पर 75 वर्ष की आयु में शांतरक्षित वहां गए. 25 वर्षों तक वहां रहकर दर्जनों बौद्ध ग्रंथों का तिब्बती भाषा में अनुवाद किया. उनका देहांत वहीं 762 ई. में हुआ. तिब्बती राजा ने उनके सम्मान में साम्ये नामक विहार बनवाया.
राहुल जी के अनुसार अतिश का जन्म, ईत्सिंग के सहपाठी शांतरक्षित के गांव सहोर ( भागलपुर ) में उन्हीं के वंश में 981 ई. में हुआ था. इनका समय विग्रहपाल- II, महीपाल एवं नयपाल शासकों का था. तिब्बती राजा के दूत नारि त्सो सुम पने के आग्रह पर वे वहां गए.
विक्रमशिला के महान आचार्य अतिश के परिमार्जन से ही बौद्ध धर्म तिब्बत का राष्ट्रीय धर्म बना. आगे चलकर उनके शिष्य व्रोम स्तोन ने बकदम्पा शाखा के संस्थापक बने. उनके ही प्रयास से परिष्कृत बौद्ध धर्म कदम पा के नाम से जाना गया. जो बाद में गेलुकपा के नाम से वहां का स्थापित धर्म बन गया। कदम पा नामक तिब्बती बौद्ध धर्म सीधे दीपंकर के नाम एवं उनके दर्शन से जुड़ा है. अतिश को लामावाद का जनक माना जाता है. उनके ही उपदेशों पर लामावाद जैसी संस्था वहां है. तेरह वर्षो तक बौद्ध धर्म को सुदृढ़ करके दीपंकर इकहत्तर वर्ष की आयु में तिब्बत के ने- थन नामक स्थान में निर्वाण को प्राप्त हुए.
यक्ष प्रश्न यह है कि सहौर में दीपंकर का घर कहाँ था, इसपर शोध होना चाहिए. लेकिन सरकार के भरोसे कम ही उम्मीद रखें. विक्रमशिला का हाल बता रहा है. भागलपुर वासियों को इस महान काम के लिए सहयोग करना चाहिए ताकि अंग के गौरव को लौटाया जा सके. साथ ही साथ भागलपुर एवं तिब्बत के प्राचीन संबंध फिर से स्थापित कर एक नए युग का शुरुआत किया जा सके.
कुछ रोचोक जानकारी : क्या है तिब्बती साहित्य का कंजुर एवं तंजुर
इन्टलेकचुअल जायन्ट के नाम से विख्यात महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने क्रमशः 1929 – 30, 1934, 1936, 1938 में तिब्बत का भ्रमण कर बौद्ध साहित्य के विशाल भंडार का अन्वेषण कर विश्व को चमत्कृत कर दिया.
सातवीं से बारहवीं शताब्दी तक संस्कृत ग्रंथों को तिब्बत ले जाकर उनका तिब्बती भाषा में अनुवाद किया गया. छह सौ वर्षों तक लगभग 4464 भारतीय ग्रंथों का अनुवाद किया गया. यही है कंजुर एवं तंजुर. विशेष यह है कि भारतीय बौद्ध साहित्य का विशाल भंडार जो मूलतः संस्कृत में था, भारत एवं तिब्बत में नष्ट हो गये, वे सब तिब्बती अनुवादों में सुरक्षित है. इनका अनुवाद वैज्ञानिक ढंग से शब्दशः हुआ है जो अपने मूल संस्कृत के बहुत निकट है. इन कंजुर एवं तंजुर ग्रंथों का अनुवाद संस्कृत एवं हिंदी में बिहार रिसर्च सोसाइटी, पटना में हो रहा है.
कंजुर एवं तंजुर का संकलन और संपादन चौदहवीं सदी में रिन छेन डुब ने किया जो बुस्तन के नाम से प्रसिद्ध हैं.
कंजुर – को तिब्बती भाषा में बुद्ध वचन कहते हैं. इसमें तंत्र, प्रज्ञापारमिता, मंत्र, सूत्र, धारिणी, विनय तथा बुद्ध वचन संकलित हैं.
तंजुर – इसमें इन सभी की व्याख्याए संकलित की गई है. इसमें स्तोत्रगण, तंत्रवृत्ति,प्रज्ञापारमिता वृत्ति, मध्यमकशास्त्र, सूत्रान्तवृत्ति, योगाचार विज्ञानवाद, अभिधर्मशास्त्र, विनयसूत्रवृत्ति, जातक, परिकथा एवं लेख, व्याकरण, छंदशास्त्र, काव्य, हेतुविधा, चिकित्सा विधा, शिल्पविद्या, नीतिशास्त्र, आशचर्य शास्त्र आदि संकलित हैं.
बौद्ध ग्रंथों का बडे पैमाने पर अनुवाद पहली बार तिब्बती मठ साम्ये की 775 ई. में स्थापना के बाद और 779 ई. में बौद्ध धर्म का तिब्बत में राज धर्म बनने के बाद हुआ. तिब्बती पंडित गेसे एवं भारतीय बौद्ध पंडितों ने मिलकर संस्कृत ग्रंथों को तिब्बती में अनुवाद करने हेतु एक मानक संस्कृत तिब्बती कोश का निर्माण कर उसके ही आधार पर प्रामाणिक अनुवाद किया.
सबसे पहला छपा हुआ संस्करण 1410 ई. में चीन से युड बो राजा के राजत्वकाल में मीड प्रदेश से प्रकाशित हुआ. तिब्बत में सबसे प्राचीन संस्करण नरथड से सातवें दलाईलामा के समय प्रकाशित हुआ. इसमें कंजुर 1731 ई. में और तंजुर 1742 ई. में पूर्ण हुआ. पहले में 100 वाल्यूम एवं दूसरे में 225 वाल्यूम थे. दोनों संस्करण लाल स्याही में 1733 ई. में छपा.
(संदर्भ – नीरज कुमार पांडेय, बौद्ध वांगमय में राहुल सांकृत्यायन का योगदान, 2009, प्रकाशक काशी प्रसाद जायसवाल शोध संस्थान, पटना.)
उस काल के इतिहास पर सुन्दर व सामयिक आलोकपात के लिए लेखक साधुवाद के पात्र हैं। उनकी विषय पर पकड़ व लेखनी की प्राञ्जलता विषय को रोचक और सहज मनोग्राही बनाती है। डा० शर्मिला बागची ने भी इस विषय, विशेषकर विक्रमशीला पर, हाल ही में एक पुस्तक का लेखन किया है, जिसकी चर्चा यहां प्रासंगिक होगी। लेखक उनसे संपर्क कर जानकारी साझा करें तो बड़ी कृपा होगी।