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डीआइजी, भागलपुर विक्रमशिला में 'विश्व धरोहर सप्ताह' का उद्घाटन करते हुए.
ब्यूरो रिपोर्ट/
विक्रमशिला जैसा समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर का ख्याल कब कब आता है ? अगर आता भी है तो किस कारण से ? क्या हमारे सारे धरोहरों केवल मंच से भाषण के लिए, थिसिस या रिसर्च या किसी अन्य चीजो के लिए है ?
उपरोक्त प्रश्नो का हल अंग प्रदेश के ऐतिहासिक धरोहरों के दशा दिशा अबलोकन से मिल सकता है.
प्राचीन-काल में अंगभूमि के नाम से प्रसिद्ध रहे भागलपुर प्रक्षेत्र के ऐतिहासिक-सांस्कृतिक-धार्मिक धरोहर आज अपनी नियति पर आठों आंसू बहाने पर मजबूर हैं। एक तरफ घोर उपेक्षा, तो दूसरी ओर विकास के नाम पर इनके विनाश की पटकथा लिखी जा रही है। हालिया वाक़या ये है कि जहां पर्यटकीय आकर्षण में वृद्धि के उत्साह में बौंसी (बांका जिला) पर स्थित पौराणिक मंदार पर्वत पर निर्माणाधीन रोप-वे के पीलर बनाने के लिये प्राचीन मूर्तियों व शिलालेखों से युक्त प्रस्तर खंडों को तोड़ा जा रहा है, वहीं सुलतानगंज (भागलपुर) की पवित्र उत्तरवाहिनी गंगा पर अवस्थित अजगैबीनाथ पहाड़ी, जहां श्रावण मास में हजारों-लाखों लोग कांवर यात्रा हेतु आते हैं, पर उत्कीर्ण अनूठे पुराकृतियों पर मंदिर-प्रबंधन द्वारा निजी स्वार्थवश सामुदायिक भवन व प्लेटफॉर्म निर्माण-विस्तार कर इनके अस्तित्व को मिटाया जा रहा है, जो कि दुर्भाग्यपूर्ण है। मजे की बात है कि बीते दिन (19 नवम्बर,17) पूरे ताम-झाम के साथ जिले के एक दूसरे महत्वपूर्ण पुरा-स्थल विक्रमशिला के प्रांगण से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के तत्वावधान में सात-दिवसीय ‘विश्व धरोहर सप्ताह’ का आगाज किया

विक्रमशिला में स्कूल के बच्चे धरोहरों के संरक्षण का शपथ लेते हुए.
गया जिसमें भागलपुर के डीआईजी सहित पटना से विभागीय उप अधीक्षक पुरातत्वविद तथा सहायक पुरातत्वविद स्तर के उच्च अधिकारियों ने भाग लिये। पर उन्होंने क्षेत्र के विनष्ट होते इन धरोहरों पर दो शब्द बोलने तक की जहमत नहीं उठाई, संरक्षण की तो बात ही दीगर। संयोगवश अभी जिले के दो वरिष्टतम पुलिस अधिकारी – डीआईजी एवं एसएसपी – इतिहास प्रेमी हैं और सोशल मीडिया पर उनके ईतिहास संबंधी प्रखर विचार आते रहते हैं, पर उनकी नजर से भी यह मुद्दा अबतक दूर है, यह समझ से परे है। यही नहीं अभी हाल में बांका जिला प्रशासन ने मंदार के प्रति ऐतिहासिक, सांस्कृतिक व धार्मिक जागरूकता लाने के दृष्टिगत यहां पापहारिणी सरोवर के मध्य स्थित लक्ष्मी नारायण मंदिर के प्रांगण में भव्य महाआरती का आयोजन किया गया था। इस अवसर पर पूरा मंदार रौशनी से नहा उठा, पर इसके सीने पर उभर रहे जख्म की किसी ने सुधि न ली, आयोजनकर्ता जिला प्रशासन ने भी नहीं।

विदेशी टूरिस्ट विक्रमशिला में .
बांका जिला के बौंसी प्रखंड में स्थित मंदार पर्वत की तलहटी में रोप-वे के द्वारा पर्यटन विकास की मंशा से पापहारिणी सरोवर के पास साफाहोड़ सम्प्रदाय के बगल के एक प्रस्तर खंड को पीलर बनाने हेतु तोड़ा जा रहा है जिसपर प्राचीन लिपियां एवं मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। जाहिर है कि कुछ इसी तरह की विध्वंसक कार्रवाई पहाड़ के उपर दूसरे पीलर बनाने के दौरान भी होगी।

शयद अब इन नस्त हो रहे ऐतिहासिक और पुरातात्बिक अवशेषों का सरक्षण हो .
विकास के नाम पर मंदार के धरोहरों को विनष्ट किये जाने पर भागलपुर के इतिहास एवं पुरातत्व प्रेमियों ने चिंता जाहिर की है। अंगिका के साहित्यकारों ने तो सोशल मीडिया के माध्यम से मुहिम भी छेड़ी, पर परिणाम वही सिफर।
इसी तरह सुलतानगंज की अजगैबी पहाड़ी पर उत्कीर्ण मूर्तियों व पुरालेखों को भी सोची-समझी चाल के तहत नस्तनाबूत करने की साजिश चल रही है। मंदिर

सुल्तानगंज में दुर्लभ शिलालेखो को बर्बाद किया जा रहा है.
प्रबंधन के द्वारा निजी स्वार्थवश सामुदायिक भवन व प्लेटफार्म निर्माण-विस्तार की आड़ में खुलेआम ईंट-सीमेंट की परतों के नीचे गुप्त व उत्तर-गुप्तकालीन मूर्तियों को दफनाया जा रहा है। इतना ही नहीं, इसके निकट सरकार के द्वारा गंगा पर बनाये जा रहे पुल से भी अजगैबी और इसके सामने स्थित व्यासकर्ण पहाड़ी के पुरा धरोहरों पर भी खतरा मंडरा रहा है। पुराविद् अरविंद सिन्हा राय का कहना है कि यह दुखद है कि पुरा सम्दाओं के संरक्षण की कोई

पुरातत्वविदों द्वारा चिन्हित जगहो पर पुल का काम शुरू होने से यह नस्ट हो जायेगा .
योजना बनाये बिना इस पुल का निर्माण किया जा रहा है। पुल के अवरोध से गंगा की धारा में जो परिवर्तन आयेगी, वह सीधे इर पहाड़ियों पर चोट करेगी।अजगैबी पहाड़ी की पुरा सम्पदा की रक्षा हेतु नगर के प्रबुद्ध नागरिकों के द्वारा इतिहासप्रेमी डीआईजी व एसएसपी से मिलकर उनका ध्यान आकृष्ट किया गया है, पर अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हो सकी है।
नजरों के सामने सैंकडों-हजारों वर्ष पुराने धरोहरों को विवशतापूर्वक विनष्ट होते देख रहे लोगों की भावना व्यक्त करते तिमा. भागलपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अवकाशप्राप्त प्राध्यापक डा. राम चंद्र घोष का कथन अक्षरशः सत्य प्रतीत होता है, “वैसे आधुनिकता और विकास के नाम पर सांस्कृतिक व प्राकृतिक धरोहरों को ध्वस्त करने की प्रवृत्ति और प्रक्रिया राष्ट्रीय स्तर पर दशकों से चल रही है। इसके विरुद्ध उठती आवाजों और आंदोलनों को सरकारी स्तर पर सख्ती से कुचला जा रहा है। ऐसे में अपेक्षाकृत संगठित प्रतिरोध की जरूरत है। काश, ऐसा कुछ जल्दी हो !
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