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शिव शंकर सिंह पारिजात/
प्राचीन परम्पराओ के अनुरूप अंग क्षेत्र के विभिन्न प्रतिष्ठानों में आज गुरु पूर्णिमा का उत्सव अपार हर्ष के साथ मनाया गया. गुरु शिष्यों के इस पावन मौके के अवसर अनोको कार्यक्रमों का आयोजन भी किया गया. पर इन सबसे दूर, अन्य दिनों के भांति विक्रमशिला बौद्ध महाविहार में आज के इस अबसर पर भी सन्नाटा छाया रहा – शयद आज के दौर के लोगो ने इस प्राचीन अंतराष्ट्रीय शिक्षा केंद्र और इसके आचार्य दीपंकर श्रीज्ञान अतिश जैसे महान गुरुओ को भुला चुके है.
अपने देश में आषाढ़ मास की पूर्णिमा को ‘गुरू पूर्णिमा’ के रूप में मनाने का प्राचीन विधान है जिस दिन शिक्षुगण अपने गुरूओं की पूजा करते हैं और उनके प्रति अपनी श्रद्धा निवेदित करते हैं. आषाढ़ पूर्णिमा के दिन ही चार वेदों तथा महाभारत के रचयिता ‘आदिगुरु’ वेदव्यास का जन्म हुआ था जिसके कारण यह दिन ‘व्यास पूर्णिमा’ भी कहलाता है. गुरू पूर्णिमा मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ वर्षा ऋतु के प्रारम्भ में आता है जब परिव्राजक साधु-संत इस दिन से चार महीने तक एक ही स्थान में रहकर ज्ञान की गंगा बहाते थे और उनके चरणों में बैठकर साधक ज्ञान, शान्ति, भक्ति व योगशक्ति प्राप्त करते थे. ठीक उसी तरह जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति प्राप्त होती है.
प्राचीन काल में अंगभूमि के नाम से विख्यात भागलपुर तथा इसके आसपास के क्षेत्र में गुरू पूर्णिमा परम्परात उत्सव व विधान के सथ मनाई जाती है और शिक्षण संस्थाओं, मंदिरों, विभिन्न संस्थानों व सार्वजनिक स्थानों पर अनुष्ठानों के आयोजन होते हैं. विशेष रूप से भागलपुर के हर्षि मेंहीं आश्रम, बौंसी के गुरुधाम, मुंगेर के योग विश्वविद्यालय, देवघर के सत्संग आश्रम में तो बड़ी संख्या में आकर देशी-विदेशी शिक्षु-श्रद्धालु अपने गुरुओं व ईष्टों के प्रति श्रद्धा-भक्ति निवेदित करते हैं. पर गुरु पूर्णिमा के इन अनुष्ठानों के बीच हम अपने स्वर्णिम प्राचीन गौरव को विस्मृत कर इस भूमि के आदि गुरूओं को श्रद्धा-सुमन अर्पित करना भूल जाते हैं जो अत्यंत अफसोसजनक है.
एक समृद्ध इतिहास को अपने आचल में समेटे भागलपुर की इस अंगभूमि पर अनेकों ऋषि-मुनियों व संतों-आचार्यों के उद्भव हुए हैं जिन्होंने अपने ज्ञान और साधना से समस्त विश्व को आलोकित करते हुए शिक्षा की अलख जगाई. शास्त्रों में ‘गु’ का अर्थ अंधकार या मूल अज्ञान व ‘रू’ का अर्थ उसका निरोधक होता है। अर्थात्, गुरू हमें अंधकार हटाकर प्रकाश की ओर ले जाते हैं. और इस भूमि के आचार्यों ने अपने इस दायित्व को बखूबी निभाया. यहां के विक्रमशिला बौद्ध महाविहार के आचार्य दीपंकर श्रीज्ञान अतिश सहित दर्जनों ख्यातिनाम आचार्यों ने न सिर्फ योग्य शिष्यों को तैयार किया, वरन् धर्म व आध्यात्म की रौशनी भी नक्षत्रमंडल की भांति विश्व में फैलाकर गुरू और गुरू पूर्णिमा के नाम को सार्थकता प्रदान की. ऐसे भारत में शरद पूर्णिमा का विशेष महत्व है क्योंकि इस दिन चंद्रमा की पूर्णता मन को मोह लेती है, फिर भी आषाढ़ पूर्णिमा को, जब चांद बादलों से घिरा रहता है, गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाने का तात्पर्य यह है कि गुरू तो चंद्रमा की तरह हैं जो स्वयं प्रकाशमान हैं और शिष्य आसाढ़ की बदली की तरह हैं जो चंद्रमा रुपी गुरू को घेरे रहते हैं.
ऐसे ही आभामान थे विक्रमशिला के आचार्य गण जो हजारों शिष्यों से घिरे रहते थे. हमारे शास्त्रों में गुरू को ईश्वर से भी बढ़कर माना गया है क्योंकि सद्गुरु की कृपा से ही ईश्वर का साक्षात्कार हो सकता है. विक्रमशिला के चौरासी सिद्धों ने परम ज्ञान व भक्ति के मार्ग दिखाये थे जो ज्ञान और ईश्वर तक जाते थे. ऐसे गुरूओं के लिये ही तो कहा गया है कि यदि गुरू और गोबिन्द दोनों सामने खड़े हों तो पहले गुरू के चरण-स्पर्श करने चाहिये क्योंकि गोबिन्द तक जाने का मार्ग तो वही बताते हैं. पर हमने अपने इन आदि गुरुओं को भूला दिया. हमारी विडम्बना है कि अंधकार से प्रकाश का मार्ग दिखाने वाले अपने गुरुओं को ही हमने विस्मृति के अंधकार में डाल दिया. क्या इतिहास हमें कभी माफ भी कर पायेगा ?
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