Change font size  -A  A  +A  ++A

बंगला पद्धति से पूजा किया गया अंग प्रदेश में एक दुर्गा प्रतिमा|


ना राम जी से ना अंग्रेज के आने से शुरू हुआ था दुर्गा पूजा, देश के पूर्वी प्रांत में दुर्गा पूजा का 5000 साल से ज्यादा पुराना इतिहास रहा है !

@news5pm

October 14th, 2021

व्यूरो रपट

वर्षा ऋतू के वारिश से धूलि हुई शरत के साफ नीला आसमान में भटकते सफेद वाद्लो का झुण्ड, कशाल के झुरमटो के ऊपर हवा से लहराता हुआ काश फुल और पुरे वातावरण में त्यौहार के आने की सुचना- हम सभी इससे काफी परिचित ही नहीं अपितु हमे इन्तेजार रहता है इस त्यौहार का जिसे हम दुर्गा पूजा के रूप से सदियों से मनाते आ रहे है.

दुर्गा पूजा का महोत्व अंग प्रदेश में बिहार के और जगहों से कुछ ज्यादा दिखाई देता है. इन दिनों इस क्षेत्र में दुर्गा पूजा दो पद्धति से किया जाता है, एक बंगला विधि से और एक पारंपरिक वैदिक पद्धति से. अंग प्रदेश में दुर्गा पूजा में हालाँकि बंगाला विधि की कुछ ज्यादा ही प्रभाव दिखाई पड़ता है, इसका वजह भी है, यह क्षेत्र कभी बृहत बंगाल के भौगोलिक सीमा क्षेत्र के अंदर हुआ करता था.

तैयार हो रहे दुर्गा की प्रतिमा|

 

हालाँकि दुर्गा पूजा हिन्दूओ का सबसे बड़ा त्यौहार है जिसे खासकर देश के पूर्वी  क्षेत्र में बड़े धूम धाम से मनाया जाता है. माता दुर्गा की आराधना शक्ति की रूप में किया जाता है और इसमें तरह तरह की मान्यता है. कुछ शास्त्रों के हवाला से  हमारे बीच में यह अवधरना है की राम चन्द्र रावण पर विजय प्राप्त करने के लिए शरत ऋतू में अकाल वोधन कर माता दुर्गा की पूजा किये थे. वंगला कवि, कृतिव्यास ने ‘कृतिव्यास रामायण’ में इसका जिक्र किया है और यह कालक्रम में एक जनप्रिय मान्यता के रूप में प्रचलित हुआ. पर इस तरह के दावा का कोई ऐतिहासिक या पुरातात्विक मान्यता/सत्यता  नहीं है.  क्योकि रामायण की मूल रचयिता, वाल्मीकि ने अपने ‘रामायण’ में  कही भी इसका जिक्र नहीं किया है. कृतिव्यास ने वाल्मीकि के ‘रामायण’ के आधार पर ही वंगला में ‘कृतिव्यास रामायण’ का रचना किये थे, तो इस तरह के दावा कृतिव्यास के अपनी निजी विचार के उपज है.

दुर्गा पूजा कव और किस तरह से प्रचलित हुआ इसका काफी पुराना और रोचक तत्य्ह है जिसे समझने के लिए हमें 5000 साल से ज्यादा पुराना इतिहास के साथ साथ क्षेत्र के भौगोलिकता पर ध्यान देना जरुरी है. वैसे तो दुर्गापूजा अमेरिका, ब्रिटेन सह दुनिया के अनेको झगह पर भारतीय मूल के निवासीओ के द्वारा सम्पन्न किया जाता है. पर भारत में वंगाल और इसके सीमा से सटे हुए जगहों पर ज्यादा होता है. पूजा के साथ साथ इस क्षेत्र के निवासियों की बीच दुर्गा पूजा लेकर कुछ ज्यादा चहल पहल वना रहता है अन्य जगहों की तुलना में कुछ ज्यादा ही रहता है. दुर्गा पूजा के वाद काली पूजा भी ठीक उसी उमंग के साथ मनाया जाता है जहाँ दुर्गापूजा का प्रचलन ज्यादा है. इसका एक ही कारण है की इन क्षेत्र में देवी माँ की आरधना शक्ति के रूप से काफी दिनों से प्रचलित है.

पाल कालीन दुर्गा की मूर्ति जो अब भारत के वाहर स्थानानतरित हो गया है|

 

हम अगर अंग क्षेत्र की बात करते है तो यहाँ दुर्गा पूजा या काली पूजा या अन्यो मातृ देविओ  जैसे विषहरी (मनषा) की पूजा की परंपरा काफी पुराना है. यह इस लिए है की इस क्षेत्र में वंगाल का काफी प्रभाव शुरू से रहा है. अंग क्षेत्र कभी पूर्वी  भारत के उस भौगोलिक क्षेत्र के अन्दर आता था जिसे बहुत वाद के दिनों में ‘बृहत वंग’ कहे जाने लगा  था.

यह क्षेत्र के निवासियों विशुद्द रूप से अनार्य होते थे और संख्य और तंत्र के आधार पर प्रकृतिमातृकाशक्ति की उपाशक थे. यहाँ के लोग हरप्पा सभ्यता का समसामयिक रहे है और हरप्पा पुरात्वात्तिक उत्खनन से प्राप्त बहुत से सामग्री बृहत् बंगाल के अन्दर बहुतो जगहों से प्राप्त पुरात्वात्तिक उत्खनन में मिले सामग्री में काफी समानता पाए जाते है.

जानेमाने भाषाविद ग्रीएरसन इन्हें ‘आउटर एरियन’ कहा है. देश के पूर्वी  प्रान्त में इनका निवास था, टोनी जोशेप अपनी किताब ‘ आरली इंडियन्स’ में यह माना है. इस क्षेत्र में तीन और एथनग्रफी की ग्रुप हुआ करता था और इन सभी में प्रकृतिमातृकाशक्ति की उपसना करने की बात सामने आया है. यह ग्रुप थे द्रब्रिडभाषी, टिबेटोवार्मिज और ओस्त्रोएशियाटिक.

इन ग्रुपो में आउटरएरियान और द्रब्रिडभाषीओ के सभी गुण, आचरण,व्यवहार, आचार, बिचार आदि हड़प्पा सभ्यता के लोगो से मूल रूप से मिलता जुलता था. सम्प्रति पुरात्वात्यिक उत्खनन से यह प्रमाणित हुआ है की उन दिनों हड़प्पा सभ्यता में प्रकृतिमातृका की उपसना की प्रचलन था. पाकिस्तान प्रान्त के झोब वैली में हुए उत्खनन से यह पता चला है की प्रकृतिमातृका के मूर्तियों में लाल रंग के सिन्दूर का प्रोयोग हुआ करता था. इसके साथ साथ वहा शख (conch) द्वारा निर्मित आभूषनो का व्यवहार किया जाता था. आज भी उक्त प्राचीन ‘बृहत् वंग’ के सीमा में प्रकृतिमातृका उपासक सिन्दुर का प्रोयोग करते है साथ ही साथ क्षेत्र के महिलाये सिंदूर और शंख के वनी चूडियो का इस्तमाल करती है. हडप्पा सभ्यता में उषा (प्रकृतिमातृका देवी) की शारदीया बोधन शरत काल में होता था, उषा कोई वैदिक देवी नहीं थी, वह हडप्पा सभ्यता के प्रकृतिमातृका उपासको की देवी थी. हड़प्पा सभ्यता में भैसा की वलि से माँ की पूजा की शुरुयात किया जाता था. हड़प्पा सभ्यता के पतन के वाद प्रकृतिमातृका उपसना की केन्द्रस्थल पूर्वी भारत प्रांत में खिसक गया था, इतिहास में यह प्रमाण मिलता है.

हड़प्पा सभ्यता में पाए जानेवाले प्रकृतिमातृका मुर्तिओ  जो मुख्य रूप में टेरेकोटा (मिटटी से तैयार किया गया मूर्ति आदि को आग में पका के) के सदृष्य/ विल्कुल एक जैसा ढेर  सारे प्रकृतिमातृका मूर्ति आदि उक्त ‘बृहत् वंग’ के अंदर अनेको जगह जैसा पान्डु राजा के डीह, चंद्रकेतुगढ़ , महास्थानगढ़, मोंगलकोट, वानगढ़, तमलुक  आदि में पुरात्वात्तिक उत्खनन से मिला है जो इस बात को दर्शाता है की हड़प्पा सभ्यता के प्रकृतिमातृका उपसना वाद के दिनों में देश के पूर्वी प्रांत में चला गया था.

हड़प्पा सभ्यता के वाद के दिनों में यानि ईसा पूर्व युग (BC- Before Christ) से   भारत में महिषमर्दिनी की मूर्तिओ का मिलना शुरू हुआ है. ईसा पूर्व युग के वाद से महिषमर्दिनी की मूर्ति में मानवरूपी (anthropomorphic) वदलाव महिषासुरमर्दिनी के रूप में उभरकर सामने आ जाता है. मामाल्लापुरम मूर्तिकला में हम देवी दुर्गा और महिषासुर के युद्ध का एक रोचक दृश्य देख सकते है.

उक्त ‘बृहत् वंग’ जिसका भौगोलिक सीमा के अन्दर अंग क्षेत्र कभी था, में सवसे पहले महिषमर्दिनी गुप्ताकाल में प्राप्त हुआ है. शेर की सवारी कररही मातृका मूर्तिओ का गुप्ताकाल के वाद नियमित मिलना शुरु हुआ है. सम्राट शशांक के समय का नालंदा से एक सिंघवाहिनी मातृका की शील मिला है.

पालकाल में महिषासुरमर्दिनी और सिंघवाहिनी मूर्तियों में से एक नया अवयव का शुरुयात हुआ. पर पालकाल में दक्षिणभारत की आठ भुजा की मातृका का नया रूप दश भुजा युक्त हुई साथ ही साथ मातृका चार सहचर/ संतान के साथ एक प्रतिमामंडल के रूप में उभर कर सामने आई.

आर्यों के आगमन के वाद वैदिक संस्कृति में इस क्षेत्र के अनार्यो की बहुत सारी चीजे, देविओ भी आर्यों द्वारा ठीक उसी प्रकार ले लिया गया जिस प्रकार क्षेत्र के अनार्यो ने भी कालक्रम में उनका बहुत कुछ आपनाया. इस तरह आदि प्रकृतिमातृका के स्वरूप में जो परिवर्तन हुआ उसमे उपरक्त बातो का भी अहम भूमिका रही होगी.

इतिहासकारो को मानना है की दस  भुजा की मातृका पालकाल के लगभग 1000 साल पहले क्षेत्र के गंगारीडाई सभ्यता की है. चंद्रकेतुगढ़ से पुरात्वात्त्तिक उत्खनन से प्राप्त दसआयुधा प्रकृतिमातृका मूर्ति इस बात को दर्शाता है की, पहले इस भूखंड में लोग दस  भुजावाली प्रकृतिमातृका का उपसना करते थे. दुर्भाग्य से आज गंगारीडाई सभ्यता जो इस भूखंड में फैला हुआ था सारे भारतीय इतिहास के सोर्सेस में सेंसर कर दिया गया है. अगर हमें कुछ भी उस महान सभ्यता के वारे जानकारी लेनी है तो हमे ग्रीक और रोमन इतिहासकारों को पड़ना होगा.

प्रवल पराक्रमी सम्राट महापद्म नन्द गांगल ( उक्त बृहत् वंग जहाँ से  गंगा नदी वहती थी और जिस क्षेत्र में लोगो को गंगारीडाई कहा जाता था) और प्रासी  (पाटलिपुत्र) के सम्राट थे जिनके पास एक सुसंगठित सैन शक्ति  खास कर युद्ध के लिए हांथियो की विशाल फौज था. कहा जाता है दुनिया को जितने निकला अलेक्स्जेंदर इस गंगारीडाई जात और हाथियों की विशाल फौज के डर से पंजाब से ही ग्रीक के तरफ भाग गया था.

उस परक्रमी गंगारीडाई जाति भारत में सबसे पहले अंतर्राष्ट्रीय व्यापार शुरू किया था और भारत का व्यापारिक समन्ध ग्रीक आदि जगह से था. उस जाति दस  भुजावाली प्रकृतिमातृका की उपासक हुआ करता था.

उक्त ‘बृहत् वंग’ के भौगोलिक सीमा के अन्दर के जनपद या आम जन उस ज़माने में वेद व्राह्मण से दूर था क्योकि उक्त क्षेत्र में आर्यो का आगमन बहुत वाद में हुआ था. क्षेत्र के लोगो के बीच सदियों से वैदिक प्रथा से पूर्ण रूप से अलग पूजा पद्धति का प्रचलन था जो मुख्यत संख्य दर्शन ( प्राचीन मुनि कपिल द्वारा रचित) और तंत्र आधारित प्रकृतिमातृका का उपसना था. जगतमाता पुरे विश्व ब्रह्माण्ड के रचयिता है, उनके द्वारा सारे जीव जगत सहित हमारे कल्पना में जो ईश्वर विराज करते है, उनका भी सृष्टी हुआ है. जगतमाता निराकार है, जगतकारन है जिसे प्रकृति कहा गया है. चुकी वह अदृष्य है, उसे छु नहीं सकते है, इस लिये उसे ध्यान में पाने के लिए उस समय लोग उसे माँ के रूप में उपसना करते थे. इसमें और एक अहम बात थी, उस प्राचीन युग में लोगो ने धरती और नारी के बीच एक समानता को देखा था, दोनों जीवनप्रसविनी है; धरती के कोख उपजाऊ होता है और नारी की कोख से बच्चे पैदा होता है. वे लोग धरती और नारी का पूजा किया करते थे इस कारण से और वाद में पहाड़, नदी, वृक्ष आदि भी उन लोगोकी देवी देवता वन गया था. इस प्रकार चन्द्रकेतुगढ़ या पान्डु राजा की डीह से प्राप्त सभी प्रकृतिमातृका मूर्तियों एक प्रकार से वाद के दिनों में प्रचलित तंत्र के वीजस्वरूप माना गया है.

और इसी कारण के चलते उस समाज में प्रकृतिमातृका का पूजा का चलन सवसे आगे था. उसी सभ्यता के निदर्शन है,  मातृप्रधान समाज जो पुरे साम्यवाद पर आधारित था जहाँ कोई वर्ण व्यवस्था या लिंग भेद नहीं था. नारी पुरुष का हैसियत  एक जैसा था. समाज में धर्म का कोई ठेकदार नहीं थे, वर्ग विशेष सभी समवेत रूप से प्रकृतिमातृका  का उपसना करते थे. पुरत्वात्तिक उत्खनन से यह स्पस्ट है की होता था उस सभ्यता के अंदर एक सुव्यवस्थित उन्नत नगर व्यवस्था होता था. इस पुरे व्यवस्था आर्यों के द्वारा नष्ट कर दिया गया और कालांतर में वैदिक सभ्यता का प्रचलन शुरू हुआ जो आज भी चल र

अंग प्रदेश की भागलपुर के सरकारवाड़ी के दुर्गा प्रतिमा, जहाँ संन 1979 से पूजा हो रहा है|

हा है.

 

उक्त प्राचीन सभ्यता में प्रकृतिमातृका मुख्य रूप से देवी के रूप में विराजमान थी. लोगो के विस्वास और  अवधारणा के अनुरूप तरह तरह में मातृकाओ की कल्पना किया गया जो आज हम उस क्षेत्र में करायागया पुरात्वात्तिक उत्खननो से देख सकते है.

अव मजेदार बात यह रहा की इन प्रकृतिमातृकाओ का स्वरूप/अवयव में क्रमवर्धन रुपांतरण वैदिक यगु आने के साथ साथ शुरू हो चूका था. उन प्रकृतिमातृका धीरे धीरे योद्धावेश में दिखने लगे थे. चंद्रकेतुगढ़ या मोंगोलकोट से एक प्रकृतिमातृका का मूर्ति मिला था जिसके एक हाथ में धान की वाली और दुसरे हाथ में मछली थी. यह मूर्ति उपज की देवी के रूप में पूजा जाता था. ठीक इसी मूर्ति का स्वरूप में परिवर्तन यह कुछ 500-800 साल के वाद दिखाई देने लगा. यैसा एक मूर्ति उक्त बृहत् वंग के अन्दर मिला जो अपनी हाथो में साप लिए हुई है. इस मूर्ति को मनषा या विषहरी देवी माना गया है.

इन प्रकृतिमातृका मूर्तियों का योद्धावेश में बदलाब के पीछे एक इतिहास है जो हमें आज हमारे दुर्गा , काली या अन्यो देविओ में देख सकते है. हम देख सकते है की किस प्रकार इन प्रकृतिमातृकाओ का बदलाव आर्यों के आगमन के पश्चात तेजी  से शुरू हुआ था. इतिहास में अनगिनत कहानिया है किस प्रकार आर्यओ ने यहाँ के मूल निवासियों जो अनार्यो थे के साथ युद्ध किया करते थे. संभवत, हड़प्पा सभ्यता का विनाश इसी लड़ाई में हुई होगी. इस तरह के आक्रमक भावनाएँ या व्यवहार (aggression)  के चलते अनार्यो अपनी वचाव हेतु अपनी  देवी को योध्या रूप में कल्पना किया होगा. और दश आयुधवाली प्रकृतिमातृका मूर्ति जो चंद्रकेतुगढ़ से प्राप्त हुआ था उसमे दस आयुध ( अस्त्र) उस मूर्ति की खोपा (जुड़ा) में हेयरपिन के तरह लगा हुआ था. वही दस आयुध जो कभी प्रकृतिमातृका मूर्ति की खोपा में लगा हुआ करता था, वह तकरीवन 1000 साल वाद (दस आयुधवाली मूर्ति चंद्रकेतुगढ़ से मिला था जो गंगारिडाई सभ्यता के समसामयिक है) देवी दुर्गा जो की अपनी दस हाथो में अस्त्र से सुसज्जित है, प्रकट होती है. शेर के ऊपर सवारी कर रही माँ महिषासुर का वध कर रही है. पालकाल में पाल राजाओ का युध्यभूमि में भीषण दर्शन के चामुंडा की कटआउट लेकर जाने की चर्चा है. उस भीषण दर्शन चामुंडा की कटआउट देखकर शत्रुपक्ष के सैनिको सहम जाते थे. वैदिककाल में यह महिषाशुर को लोगो ने आपने दुश्मन का रूप दिया था जिसका वध माँ के हाथो में हुई थी.

चुन्द्रा पाल वंश के संस्थापक गोपाल के इस्ट देवी थी और इस देवी के साथ चंडी की गहरी सम्बन्ध थे.  चुन्द्रा पाल युग के सबसे जनप्रिय देवी थी. वौद्ध धर्म के वज्राजान में चुन्द्रा को सप्तोकोटीवुद्धाजननी माना गया है. इनकी उपसना में हाथ द्वारा किया जानेवाला एक विशेष मुद्रा से किया जाता था. हो सकता है पालयुग में इस मुद्रा का उपयोग खासकर योध्या वर्ग में शारीरिक स्वास्थ रहेने के लिए किया जाता होगा. यहाँ एक बात कहना अति आवश्यक है, थेरवादी वौद्ध  धर्मं चुकी कपिल मुनि के संख्य दर्शन पर आधारित है, वौद्ध धर्मं के सारे कर्मकांड तंत्र पर आश्रित है और उस समय के बहुत सारे प्रकृतिमातृकाओ को इस धर्म के अन्दर समाहित किया गया है. उदाहरण के तौर पर इस धर्मं में तारा जैसे अनेको देविओ का पूजा का प्रचालन है और पुरात्वात्तिक नजरिया से इन सभी देविओ का काफी मेल उस समय के अनार्यो की प्रकृतिमातृकाओ के साथ है या उन सभी के सद्रिश है.  दो भुजावाली, चार भुजावाली, आठ भुजावाली चुन्द्रा की मूर्ति खुदाई से बहुतो जगह से मिल चूका है. इतिहासकारो का मानना है की इसी चुन्द्रा कालक्रम में दुर्गा के रूप में अवतरित हुई है. उस समय चुन्द्रा की पूजा में इनकी मूर्ति के गले में एक पूर्णचंद्र की माला पहनाने की विधि थी. आज भी इस क्षेत्र में दुर्गापूजा, कालीपूजा और अन्यो शक्ति की देवी के पूजा में चाँदमाला का उपयोग किया जाता है जो चुन्द्रा की गले की माला का निशानी है.

महिषमर्दिनी की प्राचीन प्रतिमा जो आज भारत के वाहर किसी देश के म्युजियम में शोभा के बस्तु है|

इतिहासकरो का मानना है की पंडू राजा की डीह से पुरातात्विक उत्खनन से प्राप्त जो पंक्षी की अवयव में चोच युक्त प्रकृतिमातृका का मूर्ति आज की काली की प्राचीन रूप है. यहाँ तक की पुराण में इस बात का जिक्र है की काली के पुराने अवयव पक्षी सद्रिश चोँच युक्त नारी मूर्ति है जो क्षेत्र के अनार्यो की एक विशेष देवी के रूप में पूजित होती थी.  इस क्षेत्र में उस समय के अवैदिक अनार्यो की यह आराध्य देवी थी. वैदिक सभ्यता के समय के सबसे महत्वपूर्ण किताब, ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ में देश के उक्त पूर्वी क्षेत्रके निवासियों की तुलना अति हीन श्रेणी से की गई है और कहा गया या वहां के निवासियों को पंक्षी से तुलना की गई है क्योकि वहां के लोग पंक्षी के अवयव युक्त प्रकृतिमातृका की उपसक थे. अर्यो की कोई धार्मिक विधि विधान/  की किताबो में देश की पूर्वी क्षेत में वहारी किसी की (मूल रूप से आर्यों को) प्रवेश निशिद्ध किया गया था और वहां जाने पर प्रायश्चित करने की विधान रखा गया था.

हम समझ सकते है की क्षेत्र की अनार्यओ के चारोऔर से आर्यों द्वारा इस तरह के आक्रमक भावनाएँ या व्यवहार (aggression)  के चलते अपने देवी से इन से निजात दिलवाने के मांग करते रहे. और इसी क्रम में इनके प्रकृतिमातृका देवियों अपनी संतानों की रक्षा हेतू दुर्गा काली आदि रणचंडी का रूप धारण किये.

और एक प्राचीन दुर्गा मूर्ति, यह भी विदेश चला गया है|

ज्ञातव्य हो की देश के पूर्वी प्रांत से पुरात्वात्तिक उत्खनन से प्राप्त आदि प्रकृतिमातृका मूर्तियों में प्रकृतिमातृका के साथ दो या कभी कभी चार सहचरी मिलता है जो तंत्र विद्या का देह्त्त्व का दोतक है. रही बात  मध्य युग की दुर्गापूजा या काली पूजा जैसे मातृ शक्तियों का उपसना की, उक्त भूभाग जिसके अन्दर इस अंग क्षेत्र भी आता था, यहाँ के मूल निवासियों के मन में आदिकाल से ही माँ का उपसना का एक परंपरा कायम हो गया. चुकी उन उपासको की पूजा पद्धति पूरा संख मिश्रित  तंत्र पर आधारित था लोगो प्रकृतिमातृका का उपसना जगत के कल्याण हेतु करते आ रहे थे. कालक्रम में प्राचीन प्रकृतिमातृका के साथ जो सहचरी रहती थी उसका कल्पना वाद में चलकर माँ का संतान के रूप से शुरू हुआ. इस कल्पना के भीतर लोगो को अपने संतान प्रेम और संतानों की कल्याण की भावना प्रमुख रही होगी. और इस प्रकार हम आज दुर्गा के साथ लक्ष्मी, सरस्वती, गणेश और कार्तिक को उनकी संतान के रूप में पाते है.

पाल युग के हाथी के दंत से निमित यह दुर्गा प्रतिमा आज विदेश के किसी जगह पर है|

इस तरह कृतिव्यास के राम द्वारा शरत काल के आश्विन महीने में अकाल वोधन कर दुर्गा पूजा शुरू करना, उक्त ‘बृहत् वंग’ के क्षेत्र सीमा के अन्दर महज एक कल्पना है. रामायण युग के पहले से ही क्षेत्र के लोगो जो विशुद्ध रूप से अनार्य थे शरत काल के आश्विन महीने में उषा से लेकर वाद में चुन्द्रा आदि प्रकृतिमातृकाओ का उपसना किया जाता था. कृतिव्यास के तरह कुछ आधुनिक इतिहास के जानकर और एक खोकला दवा करते है की पलाशी युद्ध के  वाद जव ईस्टइंडिया कंपनी इस क्षेत्र का शासन का वागडोर अपने हाथ में लिया, कोलकाता जैसे जगह में कुछ जमीदारो द्वारा दुर्गा पूजा शुरूयात किया गया. इसके 100 साल पहले ताहेर के राजा कंशनारायण ने दुर्गा पूजा बड़े धूमधाम के साथ किया था.  यह सरासर गलत दावा है दुर्गा पूजा का बृहत आयोजन भले ही हो सकता है उन जमींदारो द्वारा जो आगे चलकर सार्वजनीन पूजा के रूप लिया और मोहल्ले मोहल्ले में क्लब आदि जगह में होना शुरू हुआ. पर यह दुर्गापूजा का शुरुयात नहीं था क्योकि उस घटना (1757) के प्राय 5000 साल पहले से ही शरत काल के आश्विन महीने में प्रकृतिमातृका का उपासना  आम लोगो के बीच ज्यादा प्रचलित था.


Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.