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ब्यूरो रिपोर्ट/
बिहार पुरातत्त विभाग के द्वारा इनदिनों राज्य के कुछ जगहों पर हो रहे सर्वेक्षण से जमुई में प्रचलित पुराणी एक किंवदंति आजकल फिर से लोगो की जुबान पर है. लोगो ने यह कहना शुरू कर दिया है की अगर पुरातत्त विभाग जमुई में भी सर्वेक्षण कार्य शुरू करता है तो यहाँ के प्रचलित किंवदंति सही साबित हो सकता है.
इतिहांसकारो को माने तो पाल वंश के प्रतापी शासक इंद्रद्युम्न उर्फ इंद्रपाल की राजधानी इंदपैगढ़ (जमुई में) अपने आप में कई रहस्यों को समेटे हुए है. इन् किंवदंति के अनुसार इलाके के आसपास के जंगलों में इंद्रपाल के समय के बेशकीमती खजाना छिपा है, जिसकी आजतक खोज नहीं की जा सकी है. मुगलिया शाषोको सहित ब्रिटिश को इस बात का पता चल गया था पर वे इसे खोज नही सके. जमुई के जंगली इलाको माओवादीओ के सुरक्षित क्षेत्र माना जाता है पर इन खजानों के तलाश में वे भी है जो अभी तक उनलोगों का हाथ नही लगा है.
पुरे इलाके में आजकल लोगो की जुबान पर इन किंवदंतियों फिर से है. इनके अनुसार इंद्रपाल की रानी को एक साधु से वरदान मिला हुआ था. उस लोककथा के अनुसार रानी रोज कमल के पत्ते पर पैर रखकर नहाने जाती थी. एक दिन कमल का पत्ता डूब गया और साधु के आदेश को मानते हुए राजा इंद्रपाल राजपाट छोड़कर निकल गए. फिर यह खजाना निगोरिया समुदाय के पास चला गया, बाद में दो शासकों के बीच हुए सत्ता संघर्ष के दौरान इस खजाने को गिद्घेश्वर पर्वत के पास कहीं जमीन में गाड़ दिया गया था.
इतिहासकारो भी इस बात से सहमति जताते हैं की इलाके में पाल बंश के अंतिम शासक जो पश्चिम की तरफ अपनी राजपाट का विस्तार में लगे थे, इंदपैगढ़ में अपना राजधानी थे. वे अपना राजपाठ को आगे बढ़ने के लिए काफी प्रयास किया था और इसके चलते उन्होंने कही धनसंपद जुगार भी किया था. इतिहासकारों के अनुमान के अनुसार इलाके में आज भी उस समय का धनदौलत छिपा होना साभविक है.
के सी रायचौधरी के मुंगेर गजेटियर में भी इन बातों का उल्लेख है. इंदपैगढ़ के इस पुरातात्विक स्थल के समीप एक ऊंचा टीला और महल की मोटी दीवार की बात कही गयी है. इसे कोठरिया कहा जाता है. यहाँ यैसा लोककथा प्रचलित है की उक्त जगह या उक्त गढ़ की खोदाई अथवा जमीन पर कब्जा करने वालों को नुकसान उठाना पड़ता है. इंदपै गांव के निवाशियों ने भी यैसा बातो पर सहमति जताते हैं. “शयद इसी डर के चलते माओवादीयो ने अबतक इसका खोज करने की हिम्मत नही किया है,” कुछ लोग दबी जुबान से कहता है.
इंदपैगढ़ के इस महत्वपूर्ण अवशेष इतिहासकारों व पुराविदों के बीच एक पुराणी आकर्षण का बिषय है. 1811 को ब्रिटिश इतिहासकार फ्रांसिस बुकानन, 1871 में कनिंघम और 1872 में बेगलर यहां आकर क्षेत्र का मुयाना किया था. वे सभी इंद्रपाल को पाल वंश के अंतिम शासक और इस क्षेत्र में उनका राजधानी की बात कही थी. हालाँकि बुकानन के अनुसार मुस्लिम आतंक से घबराकर इंद्रपाल ने अपना राजपाठ छोड़ा था और गढ़ के अंदर या आसपास के किसी इलाके में उन्होंने अपना खजाना छिपा दिया. पाल वंश धन्सम्पद तथा बैभव के लिए जाना जाता था, इस वंश के राजा धर्मपाल ने विक्रमशिला बौद्ध महाबिहार जैसा विश्वविधालय का स्थापना किया था जो दुनिया में एक बिख्यात बुद्ध धर्मं तथा अन्य बिषयो का पढ़ाई का जगह था.
स्थानीय लोगो ने इलके में खोदाई की जरूरत का बात कही है. उनलोगों ने पुरातत्व विभाग को कभी भी इस रहस्य को उजागर करने का प्रयास न करने का आरोप लगाया है. पिछले कुछ सालो में यहाँ के लोगो द्वारा मकान, कुप,तलाव अदि खुदाई के क्रम में आठवीं शताब्दी की बुद्ध मूर्ति, 12 वीं शताब्दी की काले पत्थर की बटुक भैरव की मूर्ति व विष्णुचरण के अलावा 10 वीं शताब्दी की नागकन्या की मूर्तियां आदि मिली हैं जो आज जमुई के चंद्रशेखर सिंह संग्रहालय में संरक्षित है.
जिला प्रशाशन के माने तो इंदपैगढ़ के संदर्भ में बिहार पुरातत्व विभाग से कोई पत्राचार किया गया है पर अब तक इस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है. तिलका मांझी भागलपुर विश्वविधालय के इतिहांस बिभाग के प्रोफेसर, रमण सिन्हा के अनुसार अगर उस इलाके में सर्बेक्षण और उत्खनन जैसे कार्यो हो तो निश्चित रूप से दुनिया के सामने कोई चौकेने वाला तथ्य आ सकता है.
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