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अंग क्षेत्र के उपेक्षित धरोहर : अँधेरा कायम रहा लक्षदीप मंदिर में , जहां दीपावली में कभी रौशन होते थे एक लाख जगमग दीये

@news5pm

October 20th, 2017

शिव शंकर सिंह पारिजात/

“कल चमन था / आज वह सेहरा सेहरा हुआ …..” यह गीत शायद अंगक्षेत्र  के बांका जिला के बौंसी में समुद्र मंथन का साक्षी रहे मंदार पर्वत की तलहटी में स्थित ‘लक्षदीप मंदिर’ की चर्चा  में प्रासंगिक हो उठती है. कभी दीपावली के अवसर पर यहां एक लाख दीये जलाये जाते थे. अनेकानेक सांस्कृतिक, धार्मिक, ऐतिहासिक और पौराणिक गाथाओं से महिमामंडित मंदार तथा लक्षदीप मंदिर को भले ही लोग आज भूलते-से जा रहे हैं, पर यहां के पुरातात्त्विक अवशेष बीते स्वर्णिम दिनों की गवाही देते नजर आ रहे हैं. आज भले ही अंगभूमि और मंदार बौंसी का क्षेत्र श्रीहीन होकर विपन्नता झेलने को अभिशप्त है,  किंतु एक समय में विष्णुस्वरुप मंदार मधूसूदन और श्री-समृद्धि की देवी महालक्ष्मी की कृपा से सिक्त होने के कारण यह सदा धन-धान्य से परिपूर्ण रहता था. उन दिनों यहां दीपोत्सव अति आनन्दपूर्वक मनाया जाता था.

 

पुरातन काल में मंदार क्षेत्र में स्थित बौंसी एक समृद्ध नगरी थी जो ‘वालिसा नगर’ नाम से जाना जाती थी जिसका व्यापार उन्नत अवस्था में था. उन दिनों में बौंसी के बारे में यह कथन प्रचलित था कि इस नगर में 55 बाजार, 53 रास्ते और 88 तालाब थे. यहां के समृद्ध निवासी दीपावली के अवसर पर मंदार के लक्षदीप मंदिर में एक लाख दीपक जलाते थे. इसका विस्तृत वर्णन देते हुए भागलपुर जिला गजेटियर, 1911 बताता है, “पहाड़ (मंदार) की तलहटी के निकट एक भवन है, जो अब एक खंडहर-सा हो गया है, जिसकी दीवारों पर अनगिनत छोटे-छोटे चौकोर खाने बने हुए हैं जो स्पष्ट तौर पर दीपकों को रखने के लिये बनाये गये थे. यहां की प्रचलित परम्परा के अनुसार दिवाली की रात को स्थानीय निवासियों के द्वारा इन चौकोर खानों में एक लाख दीये जलाये जाते थे, जबकि प्रत्येक परिवार से यहां मात्र एक ही दीपक जलाने की अनुमति थी.” तो इतने उल्लास व वैभवपूर्ण तरीक़े से यहां मनती थी दिवाली.

 

लक्षदीप मंदिर, जिसे स्थानीय लोग ‘लखदीपा मंदिर’ कहते हैं, से थोड़ी दूर पर एक प्रस्तर निर्मित भवन के भग्नावशेष बिखरे पड़े हैं जिसपर झाड़-झंखाड़ उग आये हैं. इसके बारे में जिला गजेटियर कहता है कि यह दक्षिण के चोल राजा से संबंधित है जिनकी रानी कोणा देवी ने मंदार के नीचे पापहारिणी सरोवर खुदवाया था. कहा जाता है कि औषधीय गुणों से युक्त इस सरोवर में स्नान करने से चोल राजा को कुष्ठ रोग से निजात मिली थी.

 

कभी वैभव और ऐश्वर्य की प्रतीक रही अंगभूमि और यहां की वालिसा नगरी (बौंसी) का लक्षदीप मंदिर देख-रेख के अभाव में खंडहर में तब्दील होता जा रहा है. पुराने समय में मकर संक्रांति के दिन निकलनेवाली शोभायात्रा में बौंसी बाजार स्थित मंदिर से भगवान मंदार मधूसूदन की मूर्ति बाजे-गाजे के साथ लाकर लक्षदीप की वेदिका पर श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ रखा जाता था. इसके क्षतिग्रस्त हो जाने पर अब यह मूर्ति बगल के मैदान में बनी वेदिका पर रखा जाता है.

 

आज लक्षदीप मंदिर की छत ध्वस्त होकर गिर गई है. इसके पीलर टूटकर इधर-उधर विखरे पड़े हैं. मंदिर की दीवारों और चबूतरे तक जानेवाली सीढ़ियों में दरारें पड़ गई हैं. पूरा मंदिर इस कदर जंगली झाड़ियों में छिप गया है कि वहां तक जाने में बहुत तरद्दुद करना पड़ता है. किंतु इसपर न तो स्थानीय जिला प्रशासन और ना ही पुरातत्त्व अथवा पर्यटन विभाग – यहां तक कि नागरिकों का ध्यान है. हर वर्ष  बौंसी में मकर संक्रांति के अवसर पर राजकीय मेला लगता है, लम्बी-चौड़ी तकरीरें होती है, पर लक्षदीप मंदिर की चर्चा करने की कोई जहमत नहीं उठाता. अगर यही स्थिति रही, तो वो दिन दूर नहीं जब लक्षदीप मंदिर का वजूद ही मिट जायेगा.


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