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शिव शंकर सिंह पारिजात/
प्रधानमंत्री मोदी ने देश में पनपे भीआईपी-संस्कृति पर अंकुश लगाने व जन प्रतिनिधियों और जनता के बीच की दूरी को पाटने की मंशा से माननीयों की गाड़ियों से लालबत्तियां उतरवाकर नई सोच का परिचय देते हुए ऐतिहासिक काम तो जरूर किया, पर लोकतंत्र के प्रहरी कहलानेवाले हमारे नेताओं को ‘खास’ से ‘आम’ बनना कतई गंवारा नहीं। उनकी गाड़ियों से लालबत्तियां भले ही उतर गई हों, पर उनके भीआईपी पन का सुरूर तो अभी भी परवान पर है। रोज फूटपाथों पर धक्के खाते चलनेवाले जिन लोगों के चेहरों पर प्रधानमंत्री के इस फरमान से प्रसन्नता की हल्की लकीर खिंची है, वो जल्द काफूर होनेवाली है। अपने देश की ‘महान्’ जुगाड़ टेकनीक परम्परा का लाभ उठाते हुए हमारे माननीयों ने लालबत्ती-बंदी का माकूल विकल्प ढूंढ लिया है। अब उन्होंने अपनी गाड़ियों पर रेड लाइट की जगह साईरन लगाना शुरू कर दिया है, ताकि पब्लिक के बीच उनका ठस्सा बरकरार रहे। मध्यप्रदेश और तेलंगाना सरीखे राज्यों में यह सिलसिला शुरू भी हो गया है।
प्रधानमंत्री मोदी के निर्णय का अनुसरण करते हुए जब मध्यप्रदेश मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपनी गाड़ी से लालबत्ती हटवा दिया तो उनकी देखा-देखी बीजेपी के विधायकों ने भी अपनी गाड़ियों से लालबत्ती तो उतरवा दिया, पर लगे हाथ भीआईपी सिम्बल के रूप उनपर साईरन फिट करवा दिये। प्राप्त जानकारी के अनुसार महाराष्ट्र जैसे राज्य बिना लालबत्ती लगाये और नियमों की अवहेलना किये अपने भीआईपियों के स्टेटस को बरकरार रखने हेतु दूसरे विकल्प ढूंढने की जुगत में है। इस बाबत राज्य के गृह राज्य मंत्री द्वारा अपने डीजीपी को पत्र लिखे जाने की बात चर्चा में है। नियमों की बात करें तो सेंट्रल मोटर वेहिकल एक्ट एम्बुलेंस, दमकल व निर्माण सामग्री वाहनों के अलावे अन्य किसी वाहन को सायरन या हूटर लगाने की इजाजत नहीं देता। ऐसे भी ये सायरन ध्वनि-प्रदूषण फैलाने तथा संकरे मार्गों पर ‘ओवरटेक’ कर जनता की परेशानी का सबब बनने के अलावे करते भी क्या हैं।
हमारी आजादी के तकरीबन सत्तर साल का अनुभव यही बयां कर रहा कि पानी पी-पी कर गांधी और लोहिया के आदर्शों पर चलने की कसमें खानेवाले हमारे नेताओं ने कदम-कदम पर इन महापुरुषों के सपनों को तार-तार किया है। गांधी कहते थे कि विकास का लाभ अंतिम जन तक पहुंचे तभी सच्ची आजादी। पर ये महारथी विकास से सारे लाभ अपनी जेबों में भरकर लालबत्ती वाली गाड़ियों में फर्राटे भरना ज्यादे मुफीद समझा। लोहिया अपने विधायकों से कहा करते थे कि वे अपना सामान्य जीवन-स्तर न बढा़यें, वरन् विधायक बनने से पहले उनका जीवन-स्तर जैसा था, उसे कायम रखें। लोहिया की सीख को समाजवादियों ने कितना अपनाया है, उनके सलाना इनकम टैक्स रिटर्न देखकर एक अदना आदमी भी समझ सकता है। लालबत्तियों ने उनके जीवन-स्तर को असामान्यता के किस हद तक पहुंचा दिया है, इसकी झलक कोई उनके आलीशान बंगलों की जगमगाहट और बजबजाती नालियों से घिरी मतदाताओं की घुटनभरी झुग्गियों में झांककर देखे।
बात बिहार जैसे नक्सल प्रभावित राज्यों की करें तो यह सामंती सोच व जल-जमीन-जंगल के लिये संघर्षरत मजलूमों के बीच की वो रेखा है जिसे लालबत्तियों की ठसक ने खिंची है। बिहार जैसे ‘बाहुबली’-बहुल नेताओं वाले राज्य में लालबत्ती गाड़ियों की खासियत इस बात को लेकर भी हो जाती है क्योंकि जिन लालबत्तियों के डर से वे कभी भागे-भागे फिरते थे, वे उनकी अगुआनी में आगे-पीछे दौड़ने लगते जो हैं। इससे पब्लिक ही नहीं, उनके ‘अपने’ लोगों के बीच भी उनका रुतबा बढ़ता है। लालबत्ती सिर्फ ‘रेड लाइट’ नहीं हमारे माननीयों व हुक्मरानों के ‘मद’ और ‘पद’ के ‘स्टेटस सिम्बल’ हैं, सिर्फ कानून बना देने भर से तो इसका ‘मोह’ छूटने से रहा।
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