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संथाल हुल का एक लडाई का नजारा.
ब्रजेश वर्मा/
1855 में संथाल परगना के एक छोटे से गाँव से जिस आजादी की लड़ाई को सिदो एवं कान्हू ने शुरू किया था वह किसी न किसी रूप से आज भी ज़िंदा है.
इतने दिनों के बाद झारखण्ड का समाज तो बदला पर उन कुरीतियों को नहीं बदला जा सका जिसके लिए सिदो और कान्हू ने अपने दस हजार साथियों की बलिदानी दी थी.
आज हूल दिवस एक आधुनिक पर्व के रूप में मनाया जाता है.
समाज में जो नाराजगी दिख रही है वह सत्ता में बैठे लोगों को दिखाई नहीं देता, झारखण्ड के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने कहा.
30 जून 1855 को झारखण्ड के संथाल परगना में अंग्रेजों के खिलाफ आदिवासियों ने जो संग्राम किया वह आगे चलकर आजादी के लड़ाई में एक मील का पत्थर साबित हुआ.
यह घटना 1857 से पहले हुई थी. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को एक बड़ा विरोध झेलना पडा था. इसके नायक थे सिदो और कान्हू भाई. उनके दो अन्य भाइयों- चाँद और भैरों ने भी साथ दिया.
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दिसोम गुरु, शिबू सोरेन सिदो कान्हू को श्रध्यांजलि देते हुए .
ब्रिटिश भारत में उपनिवेशवाद के खिलाफ यह आवाज भोगनाडीह नामक एक छोटे से गाँव से उठी थी. यह स्थान अब साहेबगंज जिले के बरहेट प्रखंड में पड़ता है.
झारखण्ड के सन 2000 में गठन के बाद हूल दिवस मनाने की परम्परा तेजी से बढ़ी और अब यह एक पर्व रूप में तब्दील हो गया है.
हालकि अन्य विद्रोहों की तरह ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसे भी दबा दिया था, फिर भी इसका संथाल समाज अपर कोई फर्क नहीं पड़ता. उनके स्वतंत्र विचार आज भी जीवित हैं.
झारखण्ड के निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले शिबु सोरेन ने हूल के नायको के प्रति अपनी श्रधांजलि अर्पित करते हुए कहा कि आज भी झारखण्ड के लोगों का सपना पूरा नहीं हुआ है.
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झारखण्ड के समाज कल्याण मंत्री लुइस मरांडी द्वारा सिदो कान्हू को माल्यापर्ण करते हुए .
झारखण्ड विकास मोर्चा सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी तो राज्य सरकार के खिलाफ हक़ और माटी की लड़ाई लड़ रहे हैं. उनका कहना है कि सरकार आदिवासियों और मूलवासियों की जमीने हडप रही है. अभी हूल ज़िंदा है. हर तरफ से सरकार का विरोध हो रहा है.
आज झारखण्ड की गवर्नर द्रौपदी मुर्मू रांची से दुमका हूल दिवस मनाने के लिए ट्रेन से आयीं. इस अवसर पर सिदो कान्हू यूनिवर्सिटी में आयोजित कार्यक्रम में भाग लिया.
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