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शिव शंकर सिंह पारिजात
आजादी की लड़ाई में सत्य और अहिंसा को अपना औजार तथा चम्पारण के खेतिहरों को सत्याग्रह का ढाल बनाकर गोरे निलहों के दमन से मुक्त करानेवाले बापू आज चम्पारण-सत्याग्रह के उत्सव को कहीं से देख रहे होंगे, तो शायद यही सोच रहे होंगे कि उनका भारत और उनके देशवासी इन सौ सालों में उनसे कितने दूर हो गये हैं। गांधीवादी विचारक रजी अहमद भरे मन से कहते हैं -“चंपारण सत्याग्रह पर गांधीजी के संदेश धूमिल हो रहे हैं, उनके सपनों का भारत बनाने की बातें हो रही हैं, लेकिन उनकी नीतियों पर अमल नहीं हो रहा है।” बापू का सपना था एक ऐसे भारत का था, जहां सबको बराबरी के आधार पर जीने व अपना भविष्य तय करने का संवैधानिक अधिकार हो। वस्तुतः उनका दर्शन अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति की बात करता है।
क्या हमने समाज के हाशिये पर खड़े इस अंतिम आदमी के दुख-दर्द को पहचाना, उसके करीब जाकर उसकी आशाओं-आकांक्षाओं को टटोलने की कोई संजीदा कोशिश की, क्या उसकी हिमालय जैसी कठिनाइयों के पहाड़ से कोई ‘गंगा’ निकालने की कोशिश की ? पर बापू ने की थी।
गांधीजी ने चम्पारण के एक निपट देहाती राज कुमार शुक्ल के अनुनय-विनय पर वहां जाने का मन बनया था। श्री शुक्ल ने बापू से मिलने के पूर्व कई नेताओं से मिलकर चम्पारण के किसानों का दुखड़ा रोया था। पर किसी ने भी न तो इसे गंभीरता से लिया और न ही किसी का दिल पसीजा। इनमें से कई नेता बापू के करीबी भी थे। चम्पारण जाने से पहले गांधीजी ने इस स्थान का नाम तक न सुना था। उन्हें यह भी मालूम न था कि वहां जाने का मार्ग क्या था। इस बात की भी कोई जानकारी नहीं थी कि नील की खेती कैसे होती है। इस बात की चर्चा उन्होंने अपनी आत्मकथा में भी है। बस पीड़ित मानवता के दर्द को महसूस कर उन्होंने चम्पारण जाकर सत्याग्रह करने जैसा इतना बड़ा फैसला कर डाला। इस एक निर्णय में गांधी का सम्पूर्ण वांगमय व दर्शन छिपा है। यह दर्शाता है कि मौके तो कईयों को मिलते हैं, पर सभी गांधी क्यों नहीं बन पाते। जाति-पाती, क्षेत्रीयता, साम्प्रदायिकता व वोट बैंक के दायरे में सिमटे ‘चमचों’ से घिरे हमारे आज के नेता क्या कभी ऐसा कभी ले भी पायेंगे। यदि, नहीं तो फिर उन्हें किसी गांधी-मंच से बड़ी-बड़ी तकरीरें करने का कोई हक भी बनता है क्या।
गुलामी के दौर में ब्रिटिश सरकार के घोर दमनात्मक रवैये के बावजूद गांधी ने अंग्रेजों के साथ सिद्धांत व नीति की लड़ाई लड़ी। कभी आरोप-प्रत्यारोप का हथकंडा नहीं अपनाया। पर आज एक गांधी-मंच से राज्य केंद्र को कोस रहा है, तो कल को केंद्र यही काम किसी दूसरे मंच करेगा। पर इन दो मंचों के बीच बापू का ‘आम आदमी’ कहाँ छूटा खड़ा है, अगर हम इसे तलाश पायें तो चम्पारण सत्याग्रह के सौ साल के उत्सव की एक बड़ी सफलता होगी।
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