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शिव शंकर सिंह पारिजात/
जब भी कभी पूर्णिया या गया के स्मूथ-चौड़ी सड़कों से होकर गुजरा हूँ, दिल में बस यही चाहत उठती है कि काश अपने भागलपुर की भी सड़कें ऐसी होतीं। पर यहाँ के हुक्मरान हवाई जहाज और वाशिंगटन डीसी जैसे मॉल के सपने तो दिखाते रहे, पर भूअर्जन का रोना रोते हुए जानलेवा सड़कों पर एक चिप्पी तक सटवाने की जहमत भी न उठाई। इसी तरह जदयू-बीजेपी के नये गठबंधन की नई राज्य सरकार बनने के बाद नये निजाम से अंगवासियों की उम्मीद जगी कि केन्द्र सरकार द्वारा दो वर्ष पूर्व घोषित किये जाने के बावजूद भूमि अधिग्रहण के नाम पर लटके विक्रमशिला केन्द्रीय विश्वविद्यालय का सपना पूरा होगा। पर जब तकरीबन एक हजार करोड़ के श्रृजन घोटाले का पहला पर्दाफाश जिला भूअर्जन महकमे से होने के बाद जिले के एक आम आदमी को भी सारा फण्डा समझ में आ गया कि क्यों हाकिम लोग एनएच, बॉयपास के प्रोजेक्ट पर कुण्डली मारकर बैठे हैं, और, क्यों एपॉरेल पार्क, बॉटलिंग प्लांट और अन्य इंडस्ट्रियल योजनाएं भूअर्जन के भेंट चढ़ गई.
आज सबेरे पेपर पलट रहा तो एक हेडिंग पर नज़र पड़ गई-‘महेश को दी अस्पताल में इलाज की अनुमति’। यह महेश ब्लड कैंसर एवं कई गंभीर बीमारियों से परेशान है, मुंबई के हिंदूजा अस्पताल में उसका इलाज चल रहा है और तीन-तीन दिनों में उसकी डायलिसिस होती है। यह महेश अर्थात महेश मंडल भागलपुर जिला कल्याण ऑफिस का निलंबित नाजिर है जो श्रृजन घोटाले में शामिल है और फिलहाल हिरासत में है। करोड़ों के हेराफेरी में महेश जैसे लोगों की इतनी बड़ी हिस्सेदारी का नजीर इतना बताने के लिये काफी है कि इस प्रकरण में अधबैसु-कुबड़कर चलनेवाला महेश ही नहीं जिले का पूरा सिस्टम ही डायलिसिस पर है।
श्रृजन घोटाले ने न सिर्फ एक जिले के विकास के सपनों को तार-तार किया है, वरन् हम जैसी पुरानी पीढ़ी व आज की नई पीढ़ी के उस रोमांच-रोमांस के उन हसीन सपनों को भी तोड़ा है जिसे वे बचपन की परी-कथाओं व फैंटसी को पढ़-सुनकर पाल रहे थे। छात्र-जीवन में हमारे कोर्स में एक अंग्रेजी कहानी थी-‘ब्यूटी एण्ड द बीस्ट’, जिसमें एक स्वार्थी राक्षस ने नगर के वैभव को लूटकर दूर में एक आलीशान महल बनवाया था, जिसमें बड़े खूबसूरत बाग-बगीचे थे और चारों तरफ़ बाऊन्ड्री थी। ठीक इसी तरह महेश मंडल ने भागलपुर शहर से 16 किमी दूर गांव में 26 कमरों वाला एक आलीशान मकान बनवाया था जिसके लैट्रिन से लेकर हर कमरे में एसी लगा था और उसके पास लक्जरी गाड़ियों का जखीरा था।
कुछ इसी तरह से हमने अपने बचपन के दिनों में एक खूबसूरत राजकुमारी की कहानी भी सुनी थी जिसके प्राण एक डायन ने एक तोते में कैद कर रखी थी। जब-जब डायन उस तोते को सताती, राजकुमारी बीमार व उदास हो जाती। अंत में एक साहसी राजकुमार उस डायन के तिलिस्म को तोड़कर राजकुमारी को उसकी कुटिलता से मुक्त कराता है। हमारी इस कथा के भागलपुर संस्करण की ‘डाईन’ विकास-रूपी राजकुमारी के ‘प्राण’ यथा भूअर्जन, कोऑपरेटिव सहित इंदिरा आवास, मनरेगा,डूडा (शहरी विकास डेवलपमेंट एजेंसी), कल्याण, बच्चों की छात्रवृत्ति, मेडिकल आदि के फंड को श्रृजन-रूपी पिंजरे में कैद कर लेती है और विकास की राजकुमारी दर्द से छटपटाती रहती है। पर इस कहानी में एक अंतर है, जो यह है कि इस कहानी का राजकुमार डायन का पिंजरा तोड़ राजकुमारी के प्राण आजाद कराने की बजाय खुद उस पिंजरे में कैद होकर दाना चुंगने लगता है। जिस तरह भ्रष्टाचारियों की मिलीभगत से प्रशासन-शासन के नाक तले श्रृजन घोटाले का खेल करीब एक दशक तक चलता रहा और जनता मूकदर्शक बनी रही, अब तो यही कहना लाजिमी होगा कि हमसब ‘गुलीवर इन द लैंड ऑफ लिलिपुट’ की कहानी के ‘लिलिपुट’ मात्र भर हैं जो ‘गुलीवर’ के सामने एक बौने से बढ़कर और कुछ नहीं।
इस कलंक-कथा का नायक ‘साईबर गुरू’ होने का दिखावा करता हुआ प्रधानमंत्री के ‘डिजिटल इंडिया’के सपने साकार करने की बजाय एक ‘ब्लू ह्वेल’ की तरह निकला जो भावी पीढ़ी को आत्महत्या के लिये उकसाता है। दूसरी ओर सोशल मीडिया, प्रिंट मीडिया व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर लगातार नेताओं, राजनेताओं, हाकिमों से लेकर सोशलाइट्स के फोटोग्राफ घोटालेबाजों के साथ जिस तरह वाईरल हो रहे हैं, एक संवेदनशील नागरिक के मुंह से शेक्सपियर के ‘जूलियट सीजर’ का यह डॉयलॉग बरबस निकल पड़ता है- “ओह ब्रूटश दाऊ यू”।
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