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शिव शंकर सिंह पारिजात/
सुप्रसिद्ध इतिहासकार डा. कयामुद्दीन अहमद अपनी पुस्तक ‘अरेबिक एण्ड पर्सियन इंसक्रप्संस इन बिहार’ में कहते हैं कि प्राचीन पुरातात्विक अवशेष, पुराभिलेख, पाण्डुलिपि आदि हमारे अतीत के गलियारों के सबसे विश्वसनीय पथ-प्रदर्शक होते हैं जिन्हें सहेज-संवारकर रखने की आवश्यकता है। इन प्रचीन धरोहरों में हमारी संस्कृति के अक्श़ छिपे होते हैं जिनके माध्यम से हम अपने पूर्वजों की बौद्धिक उपलबब्धियों, यथा उनकी सोच, उनके रीति-रिवाज एवं अन्य सामाजिक व्यहवारों की जानकारी प्राप्त होती है। यही कारण है कि अमूमन हर राज्य व देश की सरकारें अपने ऐतिहासिक-सांस्कृतिक अवशेषों-धरोहरों के संरक्षण-संवर्द्धन में सदैव तत्पर रहती हैं। चीन जैसे देशों ने तो अपने सांस्कृतिक धरोहरों को न सिर्फ पर्यटन उद्योग का स्वरुप बनाया है वरन् वे इसे अपने वैश्विक प्रभुत्व का जरिया भी बनाये हुए हैं। अपने देश की बात करें तो गोआ, महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड सरीखे राज्यों की विशिष्टताओं में उनके सांस्कृतिक-ऐतिहासिक धरोहर प्रमुख एजेंडे के रुप में शामिल हैं।
पर यदि इस मामले में अनेक राष्ट्रीय-अंतराट्रीय पुरा-सम्पदाओं को अपने आगोश़ में समेटे बिहार के भागलपुर जिले की बात की जाय तो तस्वीर बहुत निराशाजनक दिखती है। यहां के नायाब ऐतिहासिक-सांस्कृतिक धरोहर घोर सरकारी उपेक्षा का शिकार होकर चौतरफा मार झेलने हुए अपने उद्धारक की बाट जोह रहे हैं। बात यहां के विख्यात विक्रमशिला बौद्ध महाविहार से शुरू करें तो इसकी ख्याति एक अंतराट्रीय शिक्षण-केन्द्र के रूप में थी जिसकी गणना नालंदा, तक्षशिला, ओदंतपुरी के समकक्ष थी। यहां देश-विदेश के शिक्षु व भिक्षु अध्ययन-अध्यापन हेतु आते रहते थे। यहां के आचार्य दीपंकर श्रीज्ञान अतीश उद्भट विद्वान थे जो तिब्बत के राजा के आमंत्रण पर वहां जाकर न सिर्फ बौद्ध-धर्म का परिमार्जन किया, वरन् वहां लामावाद का संस्थपान भी किया जिसके अनुयायी आज पूरी दुनिया में फैले हैं। आज विक्रमशिला के पुरावशेष इसकी प्रचीन गौरवगाथा के मूक साक्षी बनकर खड़े हैं। किंतु राज्य सरकार के उपेक्षापूर्ण रवैये के कारण यह अनमोल धरोहर अपनी चमक खोता जा रहा है। इसे बौद्ध-सर्किट से जोड़ने तथा यूनेस्को वर्ल्ड हेरिटेज में शामिल करने की मांग अर्से से की जा रही है, पर राज्य सरकार चुप्पी साधे हुई है। दो वर्ष पूर्व केंद्र सरकार विक्रमशिला के नाम पर केन्द्रीय विश्वविद्यालय खोलने की स्वीकृति प्रदान कर चुकी है और 500 करोड़ की प्रारंभिक भी कर्णांकित कर दी गई है, पर अभीतक जमीन अधिग्रहण करने तक की मुकम्मल कार्रवाई नहीं। आधारभूत सुविधाओं के अभाव में कई देशी-विदेशी यात्री-धर्मावलंबी वहां तक पहुंचने में जहालत झेलते हैं। सबसे बड़ी विडंबना तो यह कि अभीतक इसकी पूरी खुदाई बाकी है।
इसी तरफ यहां घोर सरकारी उपेक्षा का शिकार सुलतानगंज में उत्तरवाहिनी गंगातट पर स्थित अजगैबीनाथ धाम है जहाँ से प्रति वर्ष श्रावण मास में विश्व प्रसिद्ध ‘श्रावणी मेला’ प्रारंभ होता है। यहां से पूरे एक माह तक देश-विदेश से आये हजारों-लाखों केसरिया वस्त्रधारी शिवभक्त अपने कांवरों में पवित्र गंगाजल भरकर करीब 110 किमी. की साधनायुक्त यात्रा पूरी कर इसे देवघर (झारखंड) स्थित वैद्यनाथ द्वादश ज्योतिर्लिंग पर अर्पित करते हैं। इसी तरह सुलतानगंज की अजगैबी व मुरली पहाड़ियों पर सैंकड़ों प्रचीन मूर्तियां व शिलालेख उत्कीर्ण हैं। पुरा विशेषज्ञों का मानना हैं ऐसी अकूत पुरा सम्पदावाली पहाड़ियां पूरे बिहार में विरल है। यह अत्यंत निराशाजनक है कि हर वर्ष लगनेवाले श्रावणी मेला में आनेवाले लाखों भक्तों-सैलानियों के आवासन, पेयजल, साफ-सफाई, प्रकाश, परिवहन, चिकित्सा आदि आधारभूत सविधाओं के लिये कोई स्थाई मुकम्मल व्यवस्था प्रशासन नहीं कर पाई है और हर वर्ष ‘एडहॉक’ इंतजाम से ही काम चलाया जाता है जबकि यहां कुंभ के स्तर की तैयारियों की जरूरत है। इसी तरह अजगैबी व मुरली पहाडियों के 10 वीं शताब्दी के विरल शिल्प-शिलालेख एक तरफ घोर उपेक्षा तो दूसरी ओर अवैध निर्माण की बलि चढ़ रहे हैं। इसी तरह शाहकुंड की खेरी पहाड़ी पर तथा इसके आस-पास के नायाब पुरावशेष व पुरालिपियो का भी उचित रख-रखाव के अभाव में तेजी से क्षरण हो रहा है। खेरी पहाड़ी की प्रसिद्धि एकमुखी शिवलिंगों तथा केवल नरसिंह की पाषाण मूर्ति के कारण है। शाहकुंड में जगरिया पहाड़ी पर 1-2 शताब्दी के कुषाणकालीन बौद्ध स्तूप मिले हैं जो बिहार ही नहीं पूर्वी भारत का अपने ढंग का पहला बताया जाता है। इसी तरह जिले के गौराडीह प्रखंड के मुरहन जमीन पंचायत में कुषाणकालीन टेराकोटा की यक्षिणी की खंडित मूर्ति मिली है।
ऐसी मूर्ति देश में सिर्फ चन्द्रकेतु गढ़ और तामलुक में मिले हैं। निकट के बांका जिला के खरहा में अवलोकितेश्वर मुद्रा में बोधिसत्व व जैन तीर्थंकर की मूर्तियां मिली हैं जो गुप्तकाल के उत्तरार्ध तथा पालकाल के पूर्व की बताई जाती हैं। गौराडीह के शिवाडीह में एक बहुत बड़ा प्रचीन टीला मिला है जिसमें विक्रमशिला सरीखे ईंटों का प्रयोग किया गया है। कहलगाँव में विक्रमशिला के निकट स्थित बटेश्वर स्थान भी पुरातत्त्व की दृष्टि से महत्वपूर्ण है जिसके पाषाण खंडों पर नायाब शिल्प देंखे जा सकते हैं जिनका तेजी से क्षरण हो रहा है।
इस तरह प्राचीन काल में अंगभूमि के नाम से विख्यात भागलपुर जिला के धरोहर सरकारी उदासीनता व उपेक्षा का शिकार हो काल कलवित होते जा रहे हैं। दूसरी ओर यहां के जन प्रतिनिधि भी सोच व समझ के अभाव में इस दिशा में चिरमौन धारण किये हुए हैं। सबसे दुखद हाल यहां के इतिहास विभाग की फैकेल्टी व तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय की है जो आजतक यहां के इतिहास के परतों को खोलने का कोई उल्लेखनीय उदाहरण पेश नहीं कर पाया है। कहने को यहां यूनिवर्सिटी में एक Regional Study Centre भी है, पर यह क्षेत्रीय इतिहास में कितनी पैठ लगा सका, इसकी जानकारी किसी को नहीं। मजे की बात यह है कि राज्य के पुरातत्व विभाग की टीम पिछले दो महीनों से भागलपुर के पुरातात्विक स्थलों के शोध व अध्ययन में लगी है जो नित नये-नये अजाने तथ्यों को उजागर कर रही है। पर विश्वविद्यालय की ओर से इसपर कोई रूचि नहीं दिखाई गई है जो क्षेत्रीय इतिहास के शोध के प्रति उदासीनता को परिलक्षित करता है। पुरातत्व विभाग की टीम के मुखिया अरविन्दो सिन्हा राय का कहना है कि यहां पर किये गये अभीतक के शोध-अध्ययन के आधार पर कहा जा सकता है कि इस क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रस्तर-कला के साथ-साथ बहुत ही समृद्ध परम्परा थी। यहां हमें आदि मानव द्वारा प्रयोग किये जानेवाले पत्थर के औजारों के साथ कई कलात्मक मूर्तियां, टेराकोटा की सामग्रियां, टीले, संरचनात्मक अवशेष, पुरालेख, बर्तन आदि मिले हैं जिससे हमें इस क्षेत्र में प्राचीन मानव बसावट की प्रक्रिया (proper idea about the evolutionary prospective of the ancient settlement system) की स्पष्ट जानकारी मिल रही है।
इस तरह भागलपुर का जमींदोज इतिहास धरती का सीना चीरकर बाहर तो आ रहा है, पर लाख टके का सवाल ये है कि क्या सरकारी प्रभाव व उपेक्षा तले दबकर रह जायेंगे भागलपुर के ऐतिहासिक-सांस्कृतिक धरोहर।
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