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भागलपुर के मुख्य डाकघर.
ब्रजेश वर्मा/
“डाकिया डाक लाया …..”, “ मैने सनम को ख़त लिखा ….” सरीखे एक समय के धूम मचाने वाले गीतों आज कम सुनाई देती है. और साथ ही साथ नीली पीली अन्तर्देशीय पत्र कार्ड और पोस्टकार्ड न जाने कहाँ खो गया ?
भागलपुर के प्रधान डाकघर के काउंटर नंबर -10 पर सोमवार को एक बुजुर्ग बैठे थे जिनकी ड्यूटी है लिफ़ाफ़, अन्तर्देशीय पत्र कार्ड और पोस्टकार्ड के अलावा रेवेन्यू टिकट बेचना. पहले की तुलना में इस काउंटर पर एक भी व्यक्ति नहीं था. जब इस संवाददाता ने उक्त काउंटर से 10 लिफाफ मांगे तो बताया गया कि एक भी उपलब्ध नहीं है.
फिर उन्होंने एक पुराने से ड्रावर को जांच कर देखा और बतया कि मात्र सात अन्तर्देशीय कार्ड हैं. लिफाफ तो अब यहाँ मिलता ही नहीं है. इस संवाददाता ने जब उनसे सभी सात अन्तर्देशीय कार्ड खरीद लिए (प्रतेक की कीमत 2 रुपया 50 पैसे) तो इतने बड़े पोस्ट ऑफिस में अब जनता को बेचने के लिए कुछ भी नहीं बचा था.
कारण पूछने पर बताया गया कि लिफ़ाफ़ अब नहीं के बराबर आता है. जब आयेगा तो उपलब्ध करा दिया जाएगा.
भारतीय डाक व्यवस्था का इतिहास दुनिया में सबसे पुराना है. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसकी शुरुआत 1858 में की थी. हलाकि इसी साल ईस्ट इंडिया कम्पनी का स्वामित्त सीधे तौर पर इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया के हाथों चली गयी थी. कारण था भारत में 1857 का विद्रोह. आजादी के बाद पोस्ट ऑफिस भारत सरकार के हाथों आ गया.
जानकारी के मुताबिक भारत में इस समय 1,54,939 पोस्ट ऑफिस हैं जिनमें लगभग 90 प्रतिशत शहरी और 10 प्रतिशत ग्रामीण इलाकों में हैं जन्हें 22 पोस्टल सर्किल में बंटा गया है. इसके मुखिया चीफ पोस्टमास्टर जनरल होते हैं.
बिहार का भागलपुर शहर एक पुराना शहर है. कभी यहाँ के प्रधान डाकघर में लोगों की भीड़ लगी रहती थी. लोगों का कहना है कि अब तो नियमित रूप से डाक भी नहीं निकलते. पता नहीं पत्र के लिखे जाने के बाद वे गंतव्य स्थान पर पहुच पाएंगे भी या नहीं?
लोगों की इस संबध में दो आम धरना है-एक यह कि पोस्ट ऑफिस को कूरियर सर्विसेज ने मारा. दूसरी यह कि मोबाइल युग में अब यह पुरानी बात हो चुकि है और लोगों को पत्र लिखने की जरूरत ही नहीं महसूस होती.
“आजके युग में, खासकर युवा पीढ़ियों को तो पत्र लिखने की कला भी नहीं आती है. मोबाइल है तो पोस्ट ऑफिस का क्या काम” राजू ने बताया.
एक जमाना हुआ करता था जब खतों पर ना जाने कितने गीत लिखे जाते थे. ख़त देखकर मजनून पकड़ लेने की बात शायरों ने की थी. डाकिया पर भी गीत और कवितायेँ लिखी जाती थी और उसे समाज का सबसे महत्वपूर्ण अंग माना जाता था. अब सबकुछ ख़त्म.
भारत बदल रहा है !
रोचक जानकारी से भरा विश्लेषण। परिवर्तन समय की मांग है, और यही सत्य है। सूचना तकनीक की क्रांतिकारी अग्रगति के आगे लिफाफों, अन्तर्देशीय व पोस्टकार्डों के बलिदान पर रोना उचित नहीं, ठीक वैसे ही जैसे फर्राटे भरती कार के आगे टमटम का रोना रोना। अब ब्लॉग का युग है, पाती में कविता लिखने की उपादेयता भी सीमित है, साथ ही, सृजनशीलता कभी भी साधन की मोहताज नहीं, वो तो हर उपलब्ध तरीके से झरनों सी फूट निकलती है। हमें याद होगा, कबूतरों का पत्रवाहक के रूप में आम प्रयोग भी रूमानी होने के बावजूद डाकव्यवस्था के आगे स्वाभाविक ही इतिहास बन गया था।