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बेहुला की मंजुसा के साथ यात्रा .


बिहुला विषहरि – महज एक पूजा ही नहीं ; नारी सशक्तिकरण की उत्कर्ष गाथा है

@news5pm

August 18th, 2018

शिव शंकर सिंह पारिजात

राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय स्तर पर बिहार के स्वर्णिम योगदान का स्मरण करते ही हमारे समक्ष वैशाली के लिच्छिवि गणतंत्र का स्मरण आ जाता है जिसने विश्व को पहली लोकतांत्रिक व्यवस्था  देने के साथ नारी सबलीकरण के संदेश दिये। इसी तरह प्राचीन काल में अंग के नाम से ख्यात बिहार एक जनपद ने भी देश व विश्व को लोक जीवन के मानकों के

अंग क्षेत्र में बिषहरी पूजा

साथ महिला सशक्तीकरण का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया है जिसकी चर्चा विषहरी पूजा के अवसर पर प्रासांगिक हो उठती है। किंतु विषहरी पूजा के संदर्भ में एक बात विशिष्ट है कि जहां लिच्छिवी के गणतंत्र में नारी समानता-सशक्तिकरण का मुद्दा व्यवस्था के अंतर्निहित कारणों से समाविष्ट था, वहीं अंग की विषहरी पूजा में यह लोक-आस्था, पारम्परिक विश्वास एवं धार्मिक-सांस्कृतिक चेतना के तौर से जुड़ा है जो इसे खास विशिष्टता प्रदान करता है।

बिहुला विषहरी की लोकगाथा की  मूलत:शैव मत पर शाक्त मत के वर्चस्व की गाथा है जिसमें विश्व के सबसे बड़े शिवभक्त चांदो सौदागर अंतत: सर्पों की देवी भगवान् शिव की मानसपुत्री मनसा की पूजा करने को तैयार होते हैं जिसमें चांदो सौदागर की पुत्रवधू व बाला लखंदर की पत्नी बिहुला महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है जो अपनी दृढ़ ईच्छाशक्ति, धैर्य, अप्रतिम साहस और चारित्रिक औदार्य के कारण नारी-शक्ति व सशक्तीकरण का प्रतीक बन गई जिनके प्रति आज भी अंगवासियों  की असीम श्रद्धा तथा आस्था है जो यहां की लोक परम्पराओ में जीवंत है।

बिषहरी पूजा करती श्रद्धालु .

 

एक नारी के अंदर अपरिमित ऊर्जा और शक्ति होती है, वो परिस्थितियों की दास नहीं होती और यदि वह ठान ले तो अनहोनी को भी होनी में बदल सकती है-इसका जीवंत उदाहरण बिहुला का चरित्र पेश करता है।

बिहुला के पति की मृत्यु देवी मनसा के कोप से सुहागरात के दिन सर्पदंश से हो जाती है। किंतु दृढ़प्रतिज्ञ बिहुला अपना धैर्य नहीं खोती है और परिजनों के विरोध के बावजूद अपने मृत पति का जीवन वापस प्र्प्त करने की ठानती है। मंजूषा की नौका पर पति का शव लेकर निकल पड़ती है और  मार्ग की अपरिमित बाधाओं को झेलती हुई अपने मृत पति का शव लेकर स्वर्गलोक जाती है और देवताओं से अपने पति के जीवन का वरदान प्राप्त करती है जो दर्शाता है कि एक नारी समय के चक्र को बदलने की शक्ति रखती है।

मंजूषा को गंगा में प्रबाहित करने जाते श्रद्धालु .

अंगक्षेत्र की महिलायें बिहुला को सती कहकर भी संबोधित करती हैं और उन्हें अक्षत सौभाग्य का प्रतीक मानती हैं। हमारी रुढ़ परम्परा में एक नारी को अपने पति के शव की चिता पर जलने के बाद ही सती का दर्जा मिलता है। किंतु नारी शक्ति की प्रतीक बिहुला सदेह स्वर्ग जाकर अपनी निष्ठा से पति का जीवन प्राप्त कर सावित्री-सत्यवान की कथा को चरितार्थ करती है।

अनुपम मंजूषा कलाकृति

यह बिहुला का चारित्रिक उत्कर्ष ही है कि आज देवी मनसा के साथ उसी श्रद्धा-भक्ति से बिहुला की भी पूजा की जाती है और इस तरह न सिर्फ सतीत्व की ही नहीं वरन् देवत्व की भी

मंजूषा उकेरती एक कलाकार

गरिमा प्राप्त करती है। यही कारण है कि सदियों बीत जाने के बाद भी बिहुला की गौरवगाथा अंगवासियों के लोककंठों में आज भी परम्परागत रूप से विद्यमान है।


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